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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी अ.१ टीका. सू.१७ अकालमेघदोहदनिरूपणम् २२७ पुंजसष्णिगासाहि' अमृतमथितफेनपुञ्जसन्निकाशेः श्वेतचामरबालव्य जनैज्यिमाना २ 'संपत्थिया' संपस्थिता प्रचलिता । ततःखलु स श्रेणिको राजा स्नातः (कायसादिभ्यो दत्तानभागादिरूप कृतवलिकर्मा 'जावसस्सिरीए' यावत् सश्रीकः जत्र यावत्करणादिदंद्रष्टव्यम्-सर्वालङ्कारविभूषितः कृतशरीरशोभः इति, सश्रीकाश्रिया शोभया सम्पन्नः, हस्तिस्कन्धवरगतः हस्तिस्कन्धे समुपविष्टः, सकोरण्टमाल्यदाम्ना-कोरण्टपुष्पमाला युक्तेन छत्रेण ध्रियमाणेन भृत्यधृतेनेत्यर्थः युक्तः, चतुर्भिश्चामरैर्वीज्यमानैर्युक्तः, जब यह पूर्ण रूप से अपना शृंगार कर चुकी-तब राजा की सवारी का जो पट्टहस्ती था कि जिसका नाम सेचनक था और जिसकी गंधको सूंघकर दूसरे हाथी उसके समक्ष ठहर नही सकतेथे उसपर वह चढी। (अमयमहियफेणपुंजसण्णिगासाहिं सेयचामरबालवीयणीहिं वीइज्जमाणी २ संपत्थिया) उससमय उसके ऊपर जो श्वेतचमरोंके बाल रूपी पंखें ढोरे जा रहे थे वे अमृत के मथित हुए फेण पुंज के समान सुन्दर थे । तात्पर्य इसको यही है कि जब यह सेचनक हस्ती पर सवार हुई तय इसके ऊपर-चमर ढोरने वालोंने आजूबाजू में चमर ढोरना प्रारम्भ कर दिया। वे चमर अमृत के फेन पुंज जैसे बिलकुल उज्वल थे। इस तरह राजसी ठाटबाट से सुसज्जित होकर यह वहां से चली । (तएणं से सेणिए राया हाए जाव सस्सिरीए हत्थि खंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छोणं धारिजमाणे णं चउचामराहिं वीइज्जमाणाहिं धारिणीं देवीं पिट्टओ अणुगच्छइ) श्रेणिक राजा भी उस समय दूसरे हाथी पर बैठकर इसके पीछे २ चल रहे थे। वह भी पहिले से ही स्नान आदि क्रियाओं રાજાની સવારીને ખાસ સેચનક નામે હાથી હતું કે જેની ગંધ સૂંઘીને બીજા હાથી તેની પાસે ઉભા રહી શકતા ન હતા–તે હાથી ઉપર ધારિણી દેવી સવાર થયા. (अमयमहियफेणपुजसण्णिगासाहिं सेयचामरवालवीयणीहि वीइज्जमाणीर संपत्थिया) ते मते तमना S५२ सईद याभरीना ५मा 5 ह्या उता तेम। મથિત થયેલા અમૃતના ફીણ સમૂહ જેવા સુન્દર હતા. કહેવાનો હેતુ એ છે કે જ્યારે ધારિણી કેવી હાથી ઉપર વિરાજમાન થયાં ત્યારે બન્ને બાજુથી ચમરે ઢળાવા લાગ્યા. (ત ચમરે અમૃતના ફીણના સમૂહ જેવા એકદમ ઉજજવલ હતા. આ રીતે રાજસી ४४थी सुशामित थने तेथे त्यांची व्याख्या. (तएणं से सेणिए राया प्रणाए जान सस्सिरीए हथिबंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धारिज्जमाणेणं चउचामराहिं वीइज्जमाणाहिं धारिणीदेवी पिट्टो अणुगच्छइ) श्रेलियन પણ બીજા હાથી ઉપર સવાર થઈને પાછળ જઈ રહ્યા હતા. તેઓએ પણ પહેલેથી સ્નાન વગેરે
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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