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________________ २१० ছাগলগা ज्जलुजलिय दमणाभिरामे' दिव्योपधिप्रज्वलो पलितदर्शनाभिराम:,दिव्योषधयः= ज्योतिर्वर्द्धक सोमलतादयः, तासां प्रज्वले नेवप्रकाशेनेत्र मुकुटादि ज्योतिषा उचलितं प्रकाशयुक्तं यद् दर्शनं तेनाभिरामा सुन्दरः, तथा-'उउलच्छीसमत्त जायसोहे' ऋतुलक्ष्मी समस्तजातशोभः ऋतवा चसन्तग्रीष्मवा शरद् शिशिर हेमन्ताः, एतेपां या लक्ष्मी: शोभा तया समस्ता जाता शोभादय सः, 'पडगंघुळ्याभिराभः, प्रक्रप्टगन्धोद्धुताभिरामः तत्र प्रकृष्टगन्धेन=सुगन्धेन. उतेन=सर्वतः प्रसृतेन, अभिरामे-मनोहर:, नगवरः सकलपर्वतश्रेष्ठः मेरुरि वन्मेरुगिरिवि कुण्डल मुकु टादि सकलाभरणतेजसा दीप्यमानः समस्तशोभा-सम्पन्नः परमसुगन्धित शरीराभिराम इत्यर्थः। 'विउव्विय विचित्तवेसे' विकुर्वितविचित्रवेषावैक्रियशक्तयाऽऽश्चर्यजनकरूपलावण्यादिसम्पन्नः, 'दीवसमुदाणं' द्वीप समुआनन्ददायी था। (दियोसहिपज्जलुजलियदसणाभिरामे-उउलच्छी समरा जायसोहे, पइट्ठ गधुद्ध गभिरामे) तथा दिव्य औषधिरूप सोमः लता आदिकों के प्रकाश के तुल्य मुकुट आदि की कान्ति से यह विशेष मकाश युक्त था, अतः देखने में बडा सन्दर लगता था। वसन्त ग्रीष्म, वर्पा शरद, शिशिर एवं हेमन्त इन छह ऋतुओं की समस्त शोभा जिस में है तथा सर्वत: प्रमृत सुगंध से जो अभिराम हैं ऐसे (नगवरे) पर्वतों में श्रेष्ठ (मेरुविय) मेरु पर्वत के समान जो कुडल, मुकुट आदि समस्त आभरणों के तेज से दीप्यमान, समस्त शोभा संपन्न एवं परम सुगंधित शरीर से अभिगम था। ऐसा वह देव (विउवि यविचित्तवेसे) क्रियिक शक्ति से आश्चय जनर लावण्य आदि से संपन्न बना हुआ (दीरममुदाण अनन्त्रपरिग नाम जाणं माझं कारेण वीइवयमाणे जयंते पभाए पजलजलि यसणाभिरामे उउलछी ससत्त जाम्सोहे इह गयाभिr) અને સેમલતા વગેરે દિવ્ય ઓધિના પ્રકાશની જેમ મુકુટ વગેરેની પ્રજાથી તે વિશેષ પ્રકાશમાન હતા, એથી દેખાવમાં પણ તે અત્યન્ત સરળ લાગતા હતો વસંત, ગ્રીષ્મ, વ, શરદ, શિશિર અને હેમન્ત આ છએ છ ટકતુઓની સમગ્ર શેમાં જેમનામે વિદ્યમાન છે, તેમજ સર્વત્ર વ્યાપ્ત થયેલી સુગધથી જે भनिगम छ, सेवा (नगर) पत ४ (मेमविय) भे२पनी भरे , સૂફટ વગેરે બધા ઓવારાના પ્રકાશથી દીપ્તિમાન સમસ્ત શોભા યુક્ત અને પરમ साचित शरीरथी रे ४२ इना सेवा ते देव विउविय विचित्तवेसे) यि तिथी नवा भार तथा ३५ दावश्य युस्त ७ गया खुता. (टीसमुहाणं असंखपरि. माणनामधे जागं मझंकारेणं वीऽययमाणे उज्जोयंते पभाए विमलाए जीव
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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