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ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे
दोहदः प्रादुरभवत् - धन्या खलु ता अम्बा=मातरः, तथैव निरवशेषं भणितव्यं यावद् विनयन्ति ततः खलु अह हे पुत्र ! धारिण्या देव्यां तग्य अकालदोहदस्य बहुभिः आयैश्व उपायैः यावत् उत्पत्ति मनोरथसंप्राप्तिं च 'अमाणे' अविन्दन् = अलभमानोऽहं अपहतमनः संकल्पो यावद् ध्यायामि तेन त्वामागतमपि न जानामि । ततः खलु सोऽमयकुमारः श्रेणिकस्य राज्ञोऽ है उसे इस मास में दोहल काल के समय में इस प्रकार का दोहला उत्पन्न हुआ है- धन्नाओ णं अम्मयाओ तद्देव निरवसेसं भाणियव्वं जाव विणिति) वे साताऍ धन्य हैं इत्यादिरूप से सब दोहले का विषय राजाने अभयकुमार को "विणिति तक के पाठ में कहा गया सुना दिया (तपणं पुत्ता धारिणीए देवीए तभ्स अकालदोहलरस बहूहिं आयेहिं उवाहि जाय उपपत्ति अदिमाणे ओह मणलकप्पे जाव झियायामि) और कहा कि मैंने इस दोहले की पूर्ति अनेक कारणों अनेक उपायों आदि से करने का विचार किया था परन्तु मुझे ऐसा कोई भी कारण नहीं सुझाई दे रहा है कि जिस से उस दोहले कि पूर्ति करने में सफल प्रयत्न होस्कू । श्रतः मेरा समस्त मानसिक संकल्प व्यर्थ हो रहा है इस लिये मै चिन्तातुर हो रहा हूं और उस चिन्ता का मुझ पर इतना प्रभाव पडा है / कि मैं (तुम आजयंपि न जाणामि ) तुम्हारे आगमन को भी नहीं जान सच्चा हूँ। (तएणं से अभयकुमारे सेणियस्स रन्नो अतिए एयम सांच्चा हि जात्र हिनए सेणियं रायं एवं क्यासी) श्रेणिक राजा से इस समाचाररूप अर्थ को सुनकर और उसे मन में अवधारित कर अभयकुमार महिना या है उभां तेमाने या रीते होर उत्पन्न थयुं छेडे (धन्नाओ णं अम्मयाओं तदेव निरवसेसं भाणि जाव विर्णिति) ते भाताओ धन्य ४. वगेरे पूर्वे हेला "त्रिणंति" सुधिपाउनु वासुन शन्नो लय भारने डी सला. (तपणं पुसा धारिणीए देवीए चरम अकालदोहलस्स बहूहि आयेहि
एहि जात्र उप्पत्ति आदिमांणे ओहयमणसंकप्पे जात्र छियायामि) અને આગળ જણાવતાં કહ્યું કે મે આ દાની પૂર્તિ માટે અનેક કારણા અને ઉપાય વિચાર્યા છે, પણ આની પૂર્તિ થઇ શકે એવા કાઇ ઉપાય ધ્યાનમાં આવતા નથી એથી મારા ધા મનેાગત સંકલ્પે નકામા થઈ રહ્યા છે, અને ड ચિંતામા ડૂબી રહ્યો छु'. या चिंतानी असर भारा उपर मेसी गधी छे (तुमं आगयंपि न जाणाभि) तभाश आस्वानी पाय लागु भने था नहि (न एवं से अभयकुमारे सेणियस्म रन्तो अंतिम एयमहं सोचा णिसम्स हड जाव हियए सेणियं रायं एवं बयासी) ણિકગજાના મોઢેથી આ વાત સાભળીને તેને મનમાં સરસ રીતે ધારણુ કરીને પ્રસન્ન