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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका. सू.१३ अकालमेघदोहदनिरूपणम् पूरयेयम्, तदा शोभनम् इति, ततः तेन कारणेन खल्लु अहं हे स्वामिन् ! अस्मिन्नेतद्रो अकालदोहदे अकालमेघदोहदे 'अविणिज्जमाणसि' अविनीयमाने अपूर्यमाणे अवरुग्णा यावत् आर्तध्यानोपगता ध्यायामि । ततखलु स श्रेणिको राजा धारिण्या देव्या अन्ति के एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य धारिणी देवीमेवमवादीत-मा खलु त्वं देवानुप्रिये ! अवरुग्णा यावद्ध्याय-श्राध्यिानं मा कुरु इत्यार्थः, अहं खलु तथा करिष्यामि, यथा खलु तव अस्यैतद्रूपस्य अकालदोहदस्य मनोरथसंपाप्तिर्भविष्यति, इति कृत्वा धारिणों देवीं 'इट्ठाहिं इष्टाभिः और अपने दोहद की पूर्ति करती हैं। यदि इसी तरह की अवस्था-विशिष्ट होकर मैं भी अपने दोहद की पूर्ति करूँ तो उत्तम हो (तएणं हंसामी अयमेयारूवंसि अकालदो हलंसि अविणिज्जमाणंसि ओलुग्गा जाव अष्टशाणोयगया. झियायामि) इस तरह हे स्वामिन् ? अकाल मेघों में स्नान करनेरूप मेरा दोहला अभीतक पूरा नहीं हो रहा है-इसलिये मैं अवरुग्ण शरीरवाली होकर आतध्यान से चिन्तित हो रही हूं। (तएण से सेणिपराया धारिणीए देवीए अंतिए एपमढे सोचा णिसम्म धारिणीं देवीं एवं वयासी) श्रेणिक राजाने ज्योंही धारिणी देवी के मुख से इस बात सुना तो उसे हृदय में अवधारणकर उन्होंने धारिणी देवी से इस प्रकार कहा-(माणं तुम देवाणुप्पिए ओलुग्गा जीव झियाहि) देवानुप्रिये ! तुम अवरुग्ण एवं अवरुग्ण शरीर वाली वनकर आतध्यान मत करो (अहंणं तहा करिस्सामि जहाणं तुभं अयमेयारुवस्स अकालदोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्सइ) तुम निश्चय रखो में ऐसा उपाय करूँगा कि जिससे तुम्हारे इस अकाल दोहले की मनोरथ सिद्धि हो जावेगी [निकटु धारिणी देवी इटाहि पियाहि मणुन्नाहि શેભાને જોતી વિવિધ ક્રીડાઓ કરે છે તેમજ પિતાના દેહદ પુરૂં કરે છે. જે આમ पण भास होने ५३ ४३ शतम सा३ थाय. (त एणं, हं सोमी अयमेयाख्वंसि अकालदोहलंसि अविणिज्जमाणंसि श्रीलुग्गा जाव पट्टझाणोवगया झयायाभि) र स्वाभि । मसभये मेघवर्षामा नहायानु भा होटल ५३ थयु नयी. मेथी ४ ३२ मने३।१०।। यधने चिन्तामा ५g. (ल एणं सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एयभट्ट मोचा णिसम्म धारिणी देवी एवं वयासी) ધારિણદેવીના મઢેથી દેહદની વાત સાંભળતા જ તેને હદયમાં ધારણ કરીને રાજાએ अधु-(माणं तुम देवाणुप्पिए श्रोलुग्गा जाव शियाहि) हेवानुप्रिया तमे ३२४ भने शरी२१ यछन यिन्त न । (एईण तहा करिम्सामि जहाणं तुम्भं अयमेवारुबस्स अकालदोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्यह) तमे विश्वास राणा હું સત્વરે એ પ્રમાણે યત્ન કરીશ કે જેથી તમારા અકાળ દેહદની મને રથ સિદ્ધિ થાય,
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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