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________________ - 100 ज्ञाताधर्मकथाम परिगुहीतं संपुटीकृत्तं 'सिरसावत्त' गिरावत-गिर्रास अावनों यस्य स गिर आवर्तः, तं तादृशम् अञ्जलिं-मुकुलितकरतलपुटं 'मत्थए कमस्तकं कृत्वा श्रेणिकं राजानमेवमवादी वक्ष्यमाणमकारणाचीकथत-हे देवानुप्रियाः ! एक खलु अहम् 'अज' अद्य तम्मिन तादो-तथाप्रकारे गयनीये 'सालिंगणवाहिए सालिङ्गवर्तिके शरीरप्रमाणोपधानसहिते, इत्यादि पूर्वमत्रवर्णितविशेषणविशिष्टे 'जाव' यावत् 'णियगवयणमध्ययंत' निजकवदनमतिपतन्तं गगनतलावतरन्तं मम मुखे प्रकिगन्तं गज स्वप्नदृष्ट्वा प्रतियुद्धा जागरिताऽस्मि तम्तम्मात्कारणात एतरय खलु उदारस्य यावत-महास्वमस्य कः 'विप्रकारकः ‘कल्लाणे' कल्याण: शुभपरिणाम करके (सिरसावत्तं) पश्चात उन्हे मस्तक पर घुमाते हुए (अंजलिं मत्थए कटु) अपनी उस अंजलि को अपने माथे पर रखकर (सेणियं रायं एव क्याली) श्रेणिक राजा से इस प्रकार कहा-(एवं खलु अहं देवाणुप्पिया !) हे देवातप्रिय ! में आपके समीप इसलिये आई है-मुनिये-(अज तंसि तारिसर्गास मणिज्जसि सालिंगणवटिए जाब नियगययणमाकंतं गय मुनिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा) आज में उस पूर्वोपार्जिन परम पुण्य के प्रकर्ष से प्राणियों को प्राप्त होने योग्य शव्यापर कि जो शरीर की लंबाई प्रमाण लंब तकिये से युक्त आदि पूर्वमन्त्रवर्णित विशेषणों वाली थी उसपर सोई हुई थीं। उस समय में न अधिक निद्रा में थी और न जाग्रत अवस्था में ही। ऐसी स्थिति में मैंने रात्रि के पिछले प्रहर में गगनतल से उतरते हुए गज को अपने मुख में प्रवेश करते हुए स्वप्न में देखा है। स्वप्न देखने के अनन्तर ही में रिलकुल जग गई। (तं एयस्स णं देवाणुप्पिया ! उरालस्स AY२ मतावान (सिरसावन) पछी तेभने भत्त५२ ३२वता (अंजलि मत्यए क) पातानी सिने पोताना भाया ५२ शमीने (सेणियं राय एवं त्रयामो) तिने मा प्रभारी यु-(पत्र बलु अदेवाणप्पिया ! वानुप्रिय । सामा तभाई! पाये थेटसा भाटे यापी छु-(अजहंसित्तारिसगसि सयाणिज्नंसिसालिंगणवटिए जाब नियगवयणमडवयंतं गयं मुमिणे पासित्ताणं पडियुद्धा) આજે હું તે શય્યા ઉપર સુતી હતી કે—જે પૂર્વકાળમાં અત્યન્ત પુણ્ય પ્રકવન્ટેજ માણને પ્રાપ્ત થાય છે, અને જે શરીરની લંબઈના જેટલા લા ઓશીકાવાળી છે-વગેરે આ સૂત્રના પૂર્વ સૂત્રમાં વર્ણવેલાં બધા વિશેષણોથી યુકત હતી હું તે વખતે નિદ્રામાં ન હતી તેમજ જાગ્રત અવસ્થામાં પણ નહતી એવી સ્થિતિમાં રાત્રિના પાછલા પહેરમાં આકાશમાંથી નીચે ઉતરતા હાથી ને અઢમાં મેં મારા મેમાં પ્રવેશતો જોયો છે यस मे पछी तरतजी 15. (तं एयरस णं देवाणुप्पिया! उरालस्स जाव
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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