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________________ शाताधर्म कथाङ्ग त्रे तस्मिन । 'यप्पूरलवंगमलय चंदणकालागुरुपवरकुंदुरक्तुरुक्कडझतसुरभिमघमघंतगधुझ्याभिरामे' कपूरलवङ्गमलयचन्दनकालागुरुपवरकुन्दुरुष्कतुरष्क धूपदह्यमानसुरभिमसरद्गान्धोबूताभिरामेकर्पूरश्च-लवङ्गानि च, मलयचन्दनं श्राखण्डं च, कालागुरु कृष्णागुरुश्च, प्रवरकुन्दुरुष्काश्च-गन्धद्रव्यविशेषः, तुरुप्कश्च सिल्हकः 'लोवान' इति भापायाम, धूपश्च-गन्धद्रव्य संयोगजन्यः पदार्थः, एतेपामितरेतरयोगद्वन्द्वे-कर्पूरलवङ्गमलयचन्दनकालागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्कधूपाः, ते च दह्यमानाः=अग्नौ प्रक्षिप्यमाणाः, तेषां सुरभिः मनोज्ञः, स च प्रसरन्परितः प्रसर्पन् गन्धः उद्धृतः उपरिगतः, तेन अभिराम मनोहरं तस्मिन्, 'सुगंधवगंधिए' सुगन्ध वरगन्धिते-नानाविधपुप्प सम्पादितगन्धद्रव्यैः सुवासिते । 'गंधवाट्टभूए' गन्धवतिभूते-गन्धद्रव्यगुटिकासदृशे-सौरभ्यातिशयाद् गन्धद्रव्यनिर्मितवद् भासमाने । 'मणिकिरणपणासियंधयारे' मणिकिरणप्रणाशितान्धकारे भास्कर मणिप्रभया दूरीकृततिमिरे, 'किं वहुणा किंबहुना अधिकवर्णनेन किम् ?'जुइगुणेहि' आनन्द का धाम बना हुआ है कि जहां पर बैठ कर चित्त को एकालतःसुख हो सुख मिलता है (कप्पूरलवंगमलयचंदणकालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरक्कधूवडज्यतसुरभिमघमघतगंधुझ्याभिरामे)यहाँ का समग्र वायु मंडल सदा अग्नि में जलाये गये कपूर, लवंग, मलय चंदन, कालागुरु प्रवरकुन्दुरुक-गन्ध द्रव्य विशेप, तुरुष्क-लोवान तथा धूप, नसे तर रहा करता है। (सुगंधवरगंधिए) अत एव यह शयनागार ऐसा प्रतीत होता है कि मानों नानाविध पुष्पों से संपादित किये गये गंध द्रव्यों से ही सुवासित हो रहा है। और इसलिये यह (गंधवटिभूए) गंध द्रव्य की गोली जैसा बना हुआ जान पडता है। (मणिफिरणपणासियंधयारे) अंधकार वहां बिलकुल नहीं हैं-कारण वह नाना विध मणियों की किरणों से सदा प्रकाशित बना हुआ है (किं वहणा) इसके विषय में अधिक આન દનું સ્થળમય લાગતું હતું કે, જ્યાં બેસવાથી મનને પરમ સુખની જ પ્રાપ્તિ थाय छ. (कप्पूरलवगमलयचंदणकालागुरुपवरकुंदुरुक्कत कधूवडअंतसुर्राभमघमघंतगंधुद्धयाभिरामे) २मडीनु वायुम हमेशा ममावेत ४५२ લવિંગ, મલય ચદન, કલાગુરુ, પ્રવર કુન્દુષ્ક (એક ગન્ય દ્રવ્ય વિશેષ) તરુષ્ક, सामान भने धूपथी सुगधित हेतु तु (सुगंधवरगंधिए) माथी २मा शयनाગાર અનેક જાતના પુષ્પો અને સુવાસિત દ્રવ્ય વડે સુગંધિત થયેલું જણાતું હતુ અને એથી જ આ શયનગૃહ સુગંધિત પદાર્થની ગોળીના જેવું લાગતુ तु. (मणिकिरणपणासियंधयारे) त्या तदन मधा३ नथी, स२ ते भने सतना भशियाना प्रशव भेश प्रायभान ४ मने छ. (किं बहुणा) सेना
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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