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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ शु०१० आभ्यन्तरतपोनिरूपणम् ४५३ भय का स विनय इति विनयविषयका प्रश्ना, भगवानाइ-'विणए सत्तविहे पन्नत्ते' विनयः सप्तविधः-सप्तपकारका प्रज्ञप्तः । 'तं जहा' तद्यथा-'नाणविणए' ज्ञानविनयः, तत्र ज्ञानविनयो मतिश्रुतादिज्ञानानां श्रद्धानभक्तिवहुमान-तदृष्टार्थभावनाविधिग्रहणाभ्यासरूपः । 'दसणविणए' दर्शनविनयः सम्यग्दर्शनगुणाधिकेषु शुश्रूषादिरूपः । 'चरित्तविणए' चारित्रचिनयः सामायिकादि चारिप्राणां सम्यक् श्रद्धानकरणमरूपणानि । 'मणविणए' 'मनोविनय:-मनसा वहुमानकरणम्, 'वयविणए' वचनविनयः वचसा बहुमानकरणम् 'कायविणए' 'कायविनय:-कायेन नमस्कारादिना बहुमानकरणम् 'लोगोश्यारविणए' लोकोतप का प्रथम भेद प्रायश्चित्त है। 'से किं तं विणए' हे भदन्त ! विनय तप कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-पिणए सत्तविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! विनय सात प्रकार का कहा गया है। 'तं जहा' जैसे-'नाणविणए' ज्ञानविनय मतिश्रुत आदि ज्ञानों का श्रद्धान करना, उनकी भक्ति करना, उनका बहुमान करना तत्प्रतिपादित अर्थ की भावना, विधि ग्रहण और अभ्यास करना यह सब ज्ञान विनय है। 'दसणविणए' दर्शनविनय सम्यम् दर्शनगुण ले युक्त पुरुषों की सेवा शुश्रूषा आदि करना आदि 'चरितविणए' चारित्रधिनय-सामायिक आदि चारित्रों की सस्यक श्रद्धा करना उनका यथार्थ रूप से प्ररूपण करना आदि मणविणए' मनो विनय-मन से बहुमान करना 'वथ विणए' वचन विलय-वचन से बहुमान करना। काविण' काय विनय-काय से नमस्कार आदि द्वारा बहुमान करना। 'लोगोवयार पडेटा मह प्रायश्चित्त छ 'से किं तं विणए' 8 लापन विनय त५ सा प्रा२नु ४ छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री छे ४-'विणए सत्तविहे पण्णचे' गीतम ! विनय सात प्राग्नी डेस छे. 'तं जहाँ ते । प्रभार छ. 'नाणविणए' ज्ञानविनय, भतिज्ञान, श्रुज्ञान विगेरे ज्ञानानु श्रद्धान ४२९ તેની ભક્તિ કરવી તેનું બહુમાન કરવું તેમાં પ્રતિપાદન કરેલ અર્થની ભાવના કરવી વિધિગ્રહણ અને અભ્યાસ કરવો તે બધાને જ્ઞાન વિનય સમજ 'सणविणए' शनविनय सभ्यशन शुद्धथी युस्त ५३वानी- सेवा शुश्रषा विशेरे ४२वी 'चरित्तविणए' यात्रिविनय-सामायि विशेरे यात्रिीमा श्रद्धा કરવી અને યથાર્થ રૂપથી તેની પ્રરૂપણ કરવી તે ચારિત્ર વિનય છે. જ विणए' मनापिनय भनथा गहुमान ४२ ते मना विनय छे. 'वयविणए' क्यनया विनय ४२वात वयन विनय छे. 'कायविणए' यथा नमार विगेरे प्रहार