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________________ ०४ भगवतीने गृहस्थलि भेदात् पुलझानां त्रिपकारकामपि द्रव्यलि भवति यतश्चारित्रपरिणामस्य द्रव्यालङ्गापेक्षा न भवनीति 'गुलाए पं भंते ! किं सलिंगे' इत्यादि घग्नः । भगवानाद-गोयमा लादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दलिगं पहुच्च' द्रव्यलिङ्गं प्रतीत्य द्रव्य लिङ्गाश्रयणनेत्यर्थ:, 'सलिंग वा होजा मन्नलिंगे वा होना गिहिलिंग वा होजा' स्वलिने वा अवेत् अन्यालने वा भवेत् गृहिलिगे वा भवेत् पुलाक इनि । 'मावलिंग पञ्च नियमा सलिगे होऊजा' मावलिङ्ग प्रतीत्य नावलिगा श्रयणेन तु नियनात् बलिने एव भवेत् । 'एवं जाव सिणाए' एवं यावत् स्नातकः, अत्र यावत्पदेन वयुगकुगीलनिग्रंन्धानां संग्रहो भवति तथा च वकुशादारभ्य मुन्वन्त्रिका, रजोहरण आदि रुप जो लिङ्ग है यह द्रा की अपेक्षा स्वलिङ्ग है। परलिङ्ग कुलीथिकालिङ्ग और गृहस्थलिग की अपेक्षा दो प्रकार का है -इनमें पुलाक के तीनों भी प्रकार का धलिङ्ग होता है क्योंकि चारित्र परिणाम को उलिङ्ग की अपेक्षा नहीं होती है । तथा-जान, दर्शन और चारित्र रूप भावलिङ्ग होता है । अहनों का जो ज्ञानादि भाव है यही उनका रवलिङ्ग है । क्योंकि आईन साधु भो के हो ज्ञानादि रूप भाव का सद्भाव होता है। पूर्वोक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभुश्री गौतमस्वामी से कहते हैं-'गोयमा ! व्यलिंगं पडच्च सलिंगे वा होज्जा अन्नलिंगे वा होन्जा' हे गौतम ! द्रव्यलिंग पाय कर के पुलाक रबलिंग में भी होता है अन्यलिङ्ग में भी होता है और गृस्थति में भी होता है। और 'भावलिंग पदुख्य निम्मा सलिंगे शेजा' भावलिंग को आश्रय करके वह नियम र स्थलिंग में ही होता है । जाब लिणाए' इस प्रकार का कथन यायात नाता तक जानना चाहिये। यहां वात् शब्द से કધા છે. પવિગ-કુતીસિંકલિંગ અને ગૃહસ્થલિંગની અપેક્ષાથી બે પ્રકારના છે. તેમાં પુજાને ત્રણે પ્રકારના દલિગ હોય છે કેમકે-ચારિત્રપરિણામને દલિગની અપેક્ષા હોતી નથી. તથા ના દર્શન અને ચારિત્રરૂપ ભાવલિંગ હોય છે. હું તો જે જ્ઞાનાદિલાવ છે, તે જ તેઓનું સ્વલિંગ છે કેમકે આત ધુને જ નાનાદિ રૂપ ભાવ હોય છે. ઉપરના પ્રશ્નનો ઉત્તર 11पता की से छे - 'गोयमा ! दलिग पडुच्च सलिंगे वा होज्जा, अनगि वा दाजा' र गौतम ! यति माय दीन पुसा द्रव्य. લિગમાં પ હોય છે અને અન્ય વિંગમાં પણ છે છે, તથા ગૃહnिi urय 'भावटिंग, पउच्च नियमा सलिंगे होज्जा' विगने यसन तथा बिमा दायटे. 'एवं जाव मिणा' मा પ્રનું કથન બકુશ, કુશીલ, નિવ્ર અને સ્નાતકના સ બ ધમાં પણ સમજી
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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