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________________ प्रमैन्द्रिका टीका श० ११ ० १ सू० ४ पुलस्य सिद्धिनरूपणम् ६४५ समुन्ने' भो देवानुप्रियाः । अस्ति संभवति खलु निश्वयेन मम अतिशयं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्, यत्- 'देवलोएस णं देवाणं जहणेणं दसवास सहस्साइं तदेव - जब वोच्छिन्ना देवा य, देवलोगाय' देवलोकेषु खलु देवानां जघन्येन दशवर्ष६. सहस्राणि तथैव - पूर्वोक्तत्रदेव यावत्-स्थितिः प्रज्ञप्ता, समयाधिका इत्यारभ्य ... असंख्यात समयाधिका तथा - उत्कर्षेण दश सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, तेन परं तदनन्तरम्, व्युच्छिन्ना देवाश्व, देवलोकाश्चेति, 'तणं आलभियाए नगरीए एएणं अभिलावेणं जहा सिवस्स तं चैव से कहमेयं मन्ने एवं १' ततः खलु आलकायां नगर्याम्, एतेन - पूर्वोक्तेन, अभिका पेन- पुद्गलालापवचनेन यथा शिवअतिशय वाले ज्ञान और दर्शन उत्पन्न हुए हैं सो इनके प्रभाष से मैं , ऐसा जान सका हूं कि ' देवलोएस णं देवाणं' अहणं दसवास सह , स्साई तहेव जाव वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य' देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति १० हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट स्थिति एक समय अधिक यावत् दो समय अधिक, तीन समय अधिक, चार समय अधिक, पांच समय अधिक, छह समय अधिक, सात समय अधिक, आठ समय अधिक नौ समय अधिक, दश समय अधिक संख्यात समय अधिक और असंख्यात समय अधिक होती हुई १० सांगरोपमतक की है। इस के बाद न देव हैं और न देवलोक हैं । 'तएण आलभियाए नगरीए एएण अभिलावेणं जहा सिवस्स तं चैव से कहमे यं मन्ने एवं इसके बाद इस पुद्गलपरिव्राजक के कहने से उस आलभिका नगरी में जैमा पहिले शिवराजऋषि के संबंध में ग्यारहवें शतक के देवाणुपिया । मम अइसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने " हे हेवानुप्रियो ! भने यतिશયવાળુ' જ્ઞાનદર્શન ઉત્પન્ન થયુ છે તેના પ્રભાવથી હું એવુ' જાણી દેખી " देवलोपण देवागं जहणेण दसवाससहस्वाइ तब जाव वोच्छिन्ना देवाय देवलोगा य" हेवसेोभिमां देवानी धन्यस्थिति इस डलर वर्षानी छे त्यार यह भेऊ. मे, ऋणु, थार, पांथ, छ, सात, आठ नव, દસ, સખ્યાત અને અસખ્યાત સમય અધિક થતી થતી ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ૧૦ સાગરાપમ સુધીની હાય છે. તેથી વધારે ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા કાઈ ધ્રુવ પણ નથી અને દેવલાક પણ નથી. 61 " तएण आलभियाए नयरीए एएणं अभिलावेण जहा सिवस्स तंचेव से कहमेयं मन्ने एवं ” युद्गस परिवाली आ अारनी प्र३याने सीधे मातશિકા નગરીના લેાકામા આ વિષે ચર્ચા થવા લાગી અને લેાકેામાં અર્હત પ્રરૂપિત તત્ત્વના ખરા કે ખાટા પણા વિષે શંકા ઉત્પન્ન થઈ તે કારણે લેાકામાં કેવી કેવી ચર્ચા અને ભિન્ન ભિન્ન પ્રકારની વિચારધારા ઉદ્ભવી તે
SR No.009319
Book TitleBhagwati Sutra Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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