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प्रमैयचन्द्रिका टीका श० ११ १० १० सू० ३ लोकालोकपरिमाणनिरूपणम् ४४३ सा नर्तकी तासां दृष्टीनां किश्चित् 'आवाधां वा व्यावाधां वा, उत्पादयति, छविच्छेदं वा करोति. गौतमः प्राह-नायमर्थः समर्थः नैतत् संभवति। भगवान् पुनः प्रच्छति-'ताओ वा दिट्ठीओ अन्नमन्नाए किंचि आवाहं वा वाबाहं वा उपपाएंति? छविच्छेदं वा करेंति ?' ताः वा दशकानां दृष्टयः, अन्योन्यं-परस्परम् , किश्चिद् आवाधां वा-ईषत्पीडां वा, व्याबाधां वा-वशेषपीडां चा किम् उत्पादयन्ति ? छविच्छेदं वा-आकृतिमहं वा किं कुर्वन्ति ? गौतमः माह-'णो इणढे समढे' हे भदन्त ! नायमर्थः समर्थः, नैतत् संभवति, भगवान् प्रकृतमुपसंहरन्नाह-'से तेण टेणं गोयमा ! एवं बुन्चइ-तंचेव जाव नो छविच्छेदं वा करेंति ? हे गौत्तम ! तत् उप्पाएइ, छविच्छदं वा करेइ ' क्या वह नर्तकी उन पतित दृष्टियों में आवाधा अथवा व्यायाधा उत्पन्न करती है ? या उनकी आकृति का छेद करती है ? उसके उत्तर में गौतमने कहा-'णो इणहे समटे हे भदन्त ! ऐसा नहीं होता है। तब प्रभु ने पुनः उनसे ऐसा पूछा-'ताओ वा दिहोओ अनमनाए किंचि आवाहं वा, वायाह वा उप्पाएंति, छविच्छेदं वा करेंति' तो क्या वे दर्शकों की दृष्टिर्या परस्पर में एक दूसरी दृष्टि को आवाधा अथवा व्याबाधा उत्पन्न करती हैं ? या उसकी आकृति का छेदन करती हैं ? तब गौतम ने इस पर भी 'णो इणद्वे-समझे' यही कहा कि हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नही है । अब प्रकृतविषय का उपसंहार करते हुए प्रभु कहते हैं-'से तेणटेण गोयमा ! एवं बुच्चइ तं चेव जाव नो छविच्छेदं वा करेंति ' हे गौतम! इसी कारण मैं ने ऐसा પતિત દષ્ટિઓને કોઈ પણ આબાધા કે વ્યાબાધા પહોંચાડે છે? અથવા તેમની આકૃતિને વિચ્છેદ કરે છે ખરી?
गौतम स्वामीन। उत्तर- " णो इणढे समढे" मापन् । मे मन नथी. त्यारे महावीर प्रभु तेभने मान्न से प्रश्न पूछे छे- “ताओ वा दिट्टीओ अन्नमन्नाए किंचि आषाह वा, वाघा वा उप्पाएति ? छविच्छेद वा करेंति" गौतम! शुत प्रेक्षीनी ष्टि। ५२२५२मा मे मीनी દષ્ટિને કઈ આખાધા કે વ્યાબાધા પહોંચાડે છે ખરી? તેની આકૃતિનું છેદન કરે છે ખરી ?
गौतम स्वामीन। उत्तर- " णो इणढे सम?" मापन् ! से पात પણ સંભવી શકતી નથી.
હવે ચાલુ વિષયને ઉપસંહાર કરતા મહાવીર પ્રભુ ગૌતમ સ્વામીને ४ छ , " से तेणटेण गोयमा ! एवं वुच्चइ, तं चेव जाव नो छविच्छेद वा