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________________ ४० भगवतीसूत्रे एगेंदिवपएमा जाव चिट्ठति, पत्थि ण भंते ! अन्नमन्नस्स किंचि आवाहं वा जाव करेंति ?' हे भदन्त । तत् केनार्थेन एक्शुच्यते-लोकस्य खलु एकस्मिन् आकाशप्रदेशे ये एकेन्द्रियप्रदेशाः यावत्-हीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिष-पञ्चन्द्रिय प्रदेशाः अनिन्द्रियप्रदेशाश्च अन्योन्यबद्धाः, अन्योन्गर पृष्टाः अन्योन्यायगाढाःअन्योन्यस्नेहप्रतिवद्धाः, अन्योन्यसमभरघटाया तिष्ठन्ति, किन्तु हे भदन्त ! नास्ति न संभवति खलु अन्योन्यल्य फिश्चिद् आवाधांचा यावद् व्यावाधां वा उत्पादयन्ति, छविच्छेद बा कुर्वन्ति ? तन कि कारणमितिप्रश्नः, भगवानाह'गोयमा ! से जहा नायए नट्टिया सिया, सिंगागाश्चारुवेसा जान कलिया, रंगट्ठाणंगि जणसगउलसि, नणरासह वालि तीसइविइस्स नहस्य अन्नयरं नविदि उबदसेज्जा' हे गौतम ! तर यशानाम नर्तकी स्यात्-कदाचित् शृङ्गारीजस्थि ण पते । अन्नन्नास किंचि आवाहं वा, जाव करेंति' हे भदन्त । ऐसा आप जिस कारण से कहते हैं कि लोक के एक आकाश प्रदेश में जो एकेन्द्रिय जीव के प्रदेश, भारत के इन्द्रिय जीव के मदेश, ते इन्द्रिय जीव के प्रदेश, चोहन्द्रिय जीव के प्रदेश, पंचेन्द्रिय जीव के प्रदेश और अनिन्द्रिय जीव के प्रदेश अन्योन्यबद्ध होकर, अन्योन्य स्पृष्ट होकर, अन्योल्प अवगाढ होकर और अन्योन्यन्नेहातिबद्ध होकर अन्योन्यसममरघटाकार रूप से रहते हैं-वे परस्पर में एक दूसने को कुछ भी पीडा या व्यायाया उत्पन्न नहीं करते हैं और न एक दूसरे की आकृति का अंग करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-' गोषमा!' हे गौतम ! 'से जहानामए नट्टियासिया-सिंगारागार चारवेसा, जाव कलिया, रंगवाणंति जणाघाउलंलि, जनसयलहस्ताउलंलि बत्तीसइथिहस्स किंचि आवाहवा, जाव करेंति" मगन् । मा५ ।। ४।२२ मे ४डी છે કે લેકના એક આકાશપ્રદેશમાં જે એકેન્દ્રિય જીવના પ્રદેશે, દ્વીન્દ્રિય જીવન પ્રદેશે, ત્રીન્દ્રિય જીવન પ્રદેશ, ચતુરિન્દ્રિય જીવના પ્રદેશો, પંચેન્દ્રિય જીવના પ્રદેશ અને અનિદ્રિય જીવના પ્રદેશો પરસ્પર બદ્ધ, પરસ્પર પૃષ્ટ, પરસ્પર અવગાઢ અને પરસ્પર સ્નેહપ્રતિબદ્ધ થઈને પરસ્પર સમભર ઘડાની માફક રહે છે, તે જીવપ્રદેશે એક બીજાને સામાન્ય પીડા કે વિશેષ પીડા પોંચાડતા નથી અને એક બીજાની આકૃતિનો ભંગ પણ કરતા નથી ? भडापीर प्रभुने। उत्तर--" गोयमा । ॐ गौतम ! “से जहा नामए नट्टिया सिया-सिंगारागारधारुवेसा, जाव कलिया, रंगदाणंसि जणसयाउलसि, जणसयसहस्साउलंसि बत्तीसइविहस्स नट्टस्स अन्नयर नट्टविहिं उवदंसेज्जा"
SR No.009319
Book TitleBhagwati Sutra Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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