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प्रमेयचन्द्रिका टीका श.७ उ.३ सू.५ वेदनानिर्जरास्वरूपनिरूपणम् ४५९ अवेदिषुः ? नायमर्थः समर्थः, तत् केनार्थेन भदन्त ! एचमुच्यते यत् अवेदिषुः नो तत् निग्जारिषुः, यत् निरजारिषुः न तत् अवेदिषुः ? गौतम ! कर्म अवेदिषुः, नो कर्म निरजारिघुः, तत् तेनार्थेन गौतम ! यावत् नो तत् अवेदिषुः, नैरयिकाः खलु भदन्त ! यत् अवेदिषुः तत् निरजारिषुः ? एवं निजरिंसु तं वेदें!) हे भदन्त ! क्या यह बात ठीक है कि जो कर्म जीव द्वारा वेदित हो चुका है वह निर्जरित हुआ है और जो निजेरित हुआ है वही वेदित हुआ है ? (णो इणद्वे समद्दे) हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। (से केणढणं संते ! एवं बुच्चह, जं वेदे सु णो तं निजरेंसु, जं निजरेंसु नो तं वेदें) हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते है कि जो वेदित हो चुका है बह निर्जरित नहीं हुआ है, और जो निजेरित हुआ है वह वेदित नहीं हुआ है ? (गोयमा) हे गौतम ! (कम्मं वेदेंतु णो कम्मं निजरेंसु, से तेणटेणं गोयमा! जाव णो तं वेदेसु) कर्म जीव के द्वारा बेदित हुआ है
और नो कर्म निर्जरित हुआ है- इस कारण हे गौतम ! मैने ऐसा कहा है कि जीव के द्वारा जो निजरित हुआ है, उसके द्वारा वह वेदित नहीं हुआ है। (णेरइयाणं भंते ! जं वेदतु तं णिजरेस्ट 1) हे भदन्त ! नारकजीवों ने जिस कर्म को वेदित किया है उसी कर्म को क्या उन्हों ने निजेरित किया है ? (एवं नेरइया वि) हे गौतम ! હે ભદન્ત ! શું એ વાત ખરી છે કે કર્મનું જીવ દ્વારા વેદન થઈ ચૂકયું હોય છે તે -નિર્જરિત પણ થઈ ચૂક્યા હેય છે, અને જે કર્મ નિરિત થયું હોય તે વેદિત થઈ आयु डाय छ ? (गोयमा ! णो इणदे समझे) गौतम । मे ससपी शातुनधी. (से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ, जं वेदे सु णो तं निजरेंसु, जं निजरे सुनो तं वेदेंम) हे महन्त ! मा५ । मे ४हे! छ। ३ मे भवहित ७ गयु હોય તે નિર્જરિત થયુ હતુ નથી, અને જે નિર્જરિત થયું હોય તે વેદિત થઈ ચૂકયું लातु नथी ? (गोयमा) हे गीतम! (कम्मं वेत्सु णो कम्मं निजरेंसु, तेणटेणं गोयमा ! जान जो तं वेदेंस) उभ ना द्वारा हित थयु डाय छ, અને ને કર્મ નિજ રિત થયું હોય છે, તે કારણે મેં એવું કહ્યું છે કે જીવ દ્વારા જે કર્મ વેદિત થયું હોય છે તે નિર્જરિત થયું હોતું નથી, અને જે કર્મ નિર્જરિત થયું होय छे ते हित यु हेतु नथी (णेरइयाणं भंते ! जं वेदेंसु तं णिज्जरे मु) હે ભદન્ત ! નારક જીવોએ જે કર્મ વેદિત કર્યું હોય છે, એ જ કર્મને શુ તેમણે निरस्त यु हाय छै? ( एवं नेइया वि) हे गौतम ! सामान्य