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प्रमेयचन्द्रिका टीका श.७ उ.३ सू.५ वेदनानिर्जरास्वरूपनिरूपणम् ४५७ ___छाया-अथ नूनं भदन्त ! या वेदना सा निर्जरा, या निर्जरा सा वेदना ? नायमर्थः समर्थः। तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-या वेदना न सा निर्जरा, या निर्जरा न सा वेदना ? गौतम ! कर्मवेदना, नो कमनिर्जरा, तत् तेनार्थेन गौतम ! यावत्-न सा वेदना । नैरयिकाणां भदन्त !
वेदनानिर्जरावक्तव्यता'से गृणं भंते !' इत्यादि । सूत्रार्थ-(से णूणं भंते ! जा वेयणा सा निजरा, जा निजरा सा वेयणा) हे भदन्त ! क्या यह बात निश्चित है कि जो वेदना है वह निर्जरा है और जो निर्जरा है वह वेदना है ? (गोयमा) हे गौतम ! (णो इणढे सम४) यह अर्थ समर्थ नहीं है। (से केणवणं भते ! एव वुच्चइ, जा वेयणा न सा निजरा, जा निज्जरा न सा. वेयणा) हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारणसे कहते हैं कि जो वेदना है वह निर्जरा नहीं है और जो निर्जरा है, वह वेदना नहीं है ? (गोयमा) हे गौतम ! (कम्मवेयणा, णोकम्मनिजरा से तेणट्टेणं गोयमा ! जाव न सा वेयणा) वेदना कर्मरूप होती है और निर्जरा नोकर्मरूप होती है । इसलिये हे गौतम ! यावत् वह वेदना नहीं .है ऐसा मैंने कहा है । (नेरइयाणं भंते ! जा वेयणा सा निज्जरा,
वहन नि०४२॥ वतव्यता"से गुणं भंते !' त्यादि
साथ- (से गृणं भंते ! जा वेयणा सा निज्जरा, या निज्जरा सा वेयणा ?) ard! शु से बात तो निश्चित छ रे वेहना छ, मेन निशछ, અને જે નિજ રા છે એ જ વેદના છે એટલે કે શું વેદના નિર્જરરૂપ હોય છે અને निश ना३५ हाय छ ? (गोयमा, गौतम (णो इण समढे) तरी ते मान्यता साया नथी (से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ, जा वेयणा न सा निज्जरा जा निज्जरा न सा वेयणा?) हे महन्त मा५ । २) मे ४ो छ। ४ वहन नि३५ होती नयी मने नि ना३५ हाती नथी : (पोयमा !) हे गौतम! (कम्मवेयणा णो कम्मनिज्जरा-से तेणद्रेणं गोयमा ! जाव न सा वेयणा) वहना ४३५ हाय છે અને નિર્જરા કર્મરૂપ હોય છે. હે ગૌતમ! તે કારણે મેં એવું કહ્યું છે કે વેદના નિરારૂપ હોતી નથી અને નિર્જ વેદનારૂપ હોતી નથી.