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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श.७ उ.१ मू.८ अङ्गारादिदोषवर्णनम् ३१५ पान-भोजनस्य कः अर्थः प्रज्ञप्तः कथितः ? भगवानाह-'गोयमा ! जे णं निग्गं थे वा, निग्गं थी वा फासु-एसणिज्ज' हे गौतम ! यः खलु कश्चित निर्ग्रन्थः माधुर्वा, निम्रन्थी साध्वी वा काचित् प्रासुकै-पणीयं प्रगताः निर्गताः असवः प्राणाः यस्मात् तत्मामुक निर्जीवम् , एषणीयम् निर्दोपतया ग्राह्यम् एपणादोपरहितम् 'असण-पाण-खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता' अशनपान खादिम-स्वादिमम् प्रतिगृह्य-गृहीत्वा, 'मुन्छिए, गिद्धे, गढिए, अझोवचन्ने आहारं आहारेई' मुच्छितः मोहवान् आहारादौ सततं व्यग्रचित्तः, तदोषा नभिज्ञत्वाद , गृद्धः आहारादिलोलुपः तदासक्तचित्तत्वात् , ग्रथितः तद्विपकरागतन्तुभि सम्वद्धः सरागचित्तत्वात् , अध्युपपन्नः आहारादौ चित्तैकाग्रः सन् आहारम् आहरति, 'एस णं गोयमा ! सइंगाले पाण-भोयणे' हे गौतम ! पानभोजनका हे भदन्त ! क्या अर्थ तीर्थकरादिकॉने कहा है ? इस गौतमके प्रश्नके उत्तरमें प्रभु उनसे कहते हैं कि 'गोयमा' हे गौतम ! 'जे णं निग्गंथे वा निग्गंधी वा फास्लुएसणिज' जो निर्ग्रन्थ-साधुजन अथवा निर्ग्रन्थी साध्वीजन, जिससे प्राण निर्गत हो चुके हैं ऐसे प्रासुक-निर्जीव, तथा एषणीय एषणादोषसे रहित 'असणपाणखाइम साइमं पडिग्गाहेत्ता' अशन, पान, खादिम, स्वादिमरूप आहारपानीको ग्रहण करके 'मुच्छिए, गिद्धे, गढिए, अज्झोरचन्ने' आहार संबंधी दोषसे अनभिज्ञ होनेके कारण उसमें निरन्तर व्यग्रचित होते हुए, तदासक्त चित्तवाले होनेके कारण उस आहारादिमें लोलुप होते हुए, सरागचित्त होने के कारण तदविषयकरागरूपी तन्तु से सम्बन्ध होते हुए, अध्युपपन्न आहारादिकमें ही चित्तकी एकाग्रतायुक्त होनेके कारण उसी आहारादि सामग्रीमें तल्लीन मनवाले होते हुए 'आहारं आहारेह' गौतम. २पाभीना प्रश्नन म मापता महावीर प्रभु ४९ छे ४- गोयमा!! हे गौतम! 'जे णं निग्गंथे चा निग्गंथी वा फासुएसणिज्ज' ने निथ (साधु) मथानिय थी (सावी) प्रासुर (मयित्त निव), तथा मेषाय (मेषाषिथीहित) 'असण-पाण-खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता' २मशन, पान, माध मने २वाघ३५ यतुविध मारने अय ४२ 'मुच्छिए, गिध्धे, गढिए, अज्झोववन्ने, આહાર વિષેના દોષથી અનભિજ્ઞ (અજાણ્યા) હોવાને લીધે તેમા નિરન્તર મુØભાવ, सोलुपता, मासहित मने यित्तनी मेयता राभान 'आहारं आहारेइ' तो तेने આહારરૂપે ઉપયોગમાં લે છે
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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