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मग तीस
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वृक्षमूलच्छेत्ता तवती श्रावकः तं व्रतं वनस्पतिकायजी ववधप्रत्याख्यानरूपम् अतिचरति तद्व्रतमुलयति किम् ? भगवानाह 'णो इणट्ठे समट्टे, 'णो खल से तस्स अइवायाए आउट्टइ' हे गौतम ! नायमर्थः समर्थः, स खलु वनस्पतिकायं taarमत्याख्याता श्रावकः पृथिवीखननसमये आकस्मिकवृक्षरूपवनस्पतिकाय मूलोच्छेदनेऽपि वनस्पतिकायजीववधपत्याख्यानव्रतं न अतिचरति । तंत्र कारणमाह-न खलु स तद्वधप्रत्याख्यानवती श्रावकः तस्य वृक्षरूपवनस्पतिका मूलस्य अतिपाताय विनाशाय आवर्तते = प्रवर्तते, तदुच्छेदमुद्दिश्य तस्य तदुद्वेधप्रत्पाख्यातुः मवृत्तेरभावात्, नहि संकल्पोच्छेदोऽसौ संकल्पो.-. च्छेदात निवृत्तत्वादेव तद् व्रतं स नातिचरति=न तद् व्रतमुल्लङ्घयति, तस्य तद् व्रतं न खण्डितं भवतीति भावः ॥ सू० ४ ॥
वनस्पतिकाय जीवबधं प्रत्याख्यानरूप अपने व्रत का उल्लंघन करने वाल बन जाता है ? इसके उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं कि-' णो इणट्ठे समट्टे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है- अर्थात् वनस्पति कायजीव प्रत्याख्याता वह श्रावक पृथिवी खोदने के समय आकस्मिकरूप से वृक्षरूप वनस्पति काय का मूलोच्छेदन हो जाने पर भी वनस्पतिकाय जीववध प्रत्याख्यानरूप अपने व्रत का उल्लंघन नहीं करता है क्यों कि इसमें कारण यह है कि वह तद्वधप्रत्याख्यानव्रती श्रावक उस वृक्षरूप वनस्पति काय के सूल को विनाश करने के बुद्धिपूर्वक प्रवृत्त थोडे ही हुआ है । इसलिये उसके मूल को उच्छेदन करने के अभिप्राय से इसकी वहां प्रवृत्ति नहीं होने के कारण यह तद्वध प्रत्याख्याता श्रावक अपने उस व्रतं अतिचरित नहीं होता है। क्यों कि संकल्पपूर्वक इस तरह की प्रवृत्ति से वह पहिले से ही निवृत्त हो चुका है | सू० ४ ॥
'भंडावीर अलु उडे छे– ' णो इणट्टे समट्ठे ' हे गीत ! अर्बु सभवी शस्तु નથી. વનસ્પતિકાય જીવ વધ પ્રત્યાખ્યાતા તે શ્રાવક પૃથ્વીને ખેાઢતાં ખાદતાં અચાનક વૃક્ષ રૂપ વનસ્પતિકાયના મૂળનુ છેદન કરી નાખે છે તે સમજણુપૂર્ણાંક અથવા જાણી જોઈને તે કાર્ય કરતા નથી. તેણે વૃક્ષના મૂળનું છેદન કરવાના હેતુપૂર્વક તે તે પ્રવૃત્તિ કરી ન હતી તે પૃથ્વીને ખેાદતા હતા, તેમાં અજાણતા તેનાથી વૃક્ષના મૂળનું છેદન થઈ ગયું તેથી તેના એ વ્રતનુ ખાન થતું નથી. કારણ કે સકલ્પપૂર્ણાંક આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિથી તે તે પહેલેથી જ નિવૃત્ત થઇ ચૂકયા છે !! સુ ૪