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भगवतीसूत्रे "जीवेणं भंते !' इत्यादि । 'जीवेणं भंते !' णाणावरणिज्जं कम्म बंधमाणे कइ कम्मप्पगडीओ घंधइ ?' गौतमः पृच्छति- हे भदन्त ! जीव खलु ज्ञानावरणीयं कर्मवघ्नन् कति-कियतीः कर्मप्रकृतोः वध्नाति ? भगवानाह'गोयमा! सत्तविहबंधएवा, अढविहबंधएवा, छबिहबंधएवा' हे गौतम! नीवो ज्ञानवरणीयं कर्मवघ्नन् आयुपोऽवन्धकाले सप्तविधवन्धकः ज्ञानावरणदर्शनावरणादि भेदेन सप्तमकारककर्मवन्धको भवति, वा शब्दः पक्षान्तरसूचको वर्तते, तदेव पक्षान्तरमाह-अष्टविधवन्धको वा भवति आयुपोवन्धकाले अष्ट प्रकाराणामपि कर्मणां वन्धको भवति, तथा सूक्ष्मपराय दशमगुणही होता है- इसलिये अब सूत्रकार कर्मबन्ध की प्ररूपणा करने के लिये 'जीवे णं भंते' इत्यादि मूत्र कहते हैं- इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है कि 'जीवे णं अंते ! गाणावरणिनं कम्मं बंधमाणे करकम्मप्पगडोओ बंधह' हे भदन्त ! जीव जब ज्ञानावरणीय कर्म का बंध करता है, उस समय वह कितनी कर्मप्रकृतियों का बंध करता है ? इनके उत्तर में प्रभु गौतम से करते हैं कि 'गोयमा' हे गौतम ! 'सत्तविहबंधए वा, अट्टविह बंधए वा, छविह बंधए वा' जीव जव ज्ञानावरणीय कर्म का बंधकरता है और उस समय यदि आयुकर्म के बंध का समय उसका नहीं है तो वह ज्ञानावरण दर्शनावरण आदि के भेद से सात प्रकार के कर्मों का बंधक होता है। यहां पर 'वा' शब्द पक्षान्तर का सूचक है. इसलिये उसी पक्षान्तर को प्रकट करने के निमित्त मृत्रकार कहते हैं कि 'अष्टविधबंधको वा भवति' ज्ञानावरणीय कर्म का बंध करते हुए जोव को यदि आयुकर्म के बध . गौतम २वामी मडावीर प्रभुने मे प्रश्न पूछे छे ? " जावेणं भंते ! णाणावरणिज्ज कम्मं बंधमाणे कइ कम्मपगडीओ बंधइ ?" महन्त ! 4 જ્યારે જ્ઞાનાવરણીય કર્મને બધ કરે છે, ત્યારે તે કેટલી કર્મપ્રકૃતિ ને બધ કરે છે? तेन वाम मापता मडावीर प्रभु गौतम काभान ४ छ । 'गोयमा " गीतमा "सत्तविहधए वा, अविइ बधए चा, छबिहबंधए वा" या ज्ञानाવરણી કમને બંધ કરે છે અને તે સમયે જે તેના આયુકર્મના બધને સમય ન હોય, તો તે જ્ઞાનાવરણીય, દર્શનાવરણીય આદિ સાત પ્રકારના કર્મોને બંધ કરે છે. અહીં 'वा" ५६ ५क्षान्तनुं सूय छ, तेथी ते पक्षान्तरने प्रगट ४२वा भाटे सूत्रधार ४ छ । “अष्टविधधको वा' भवति" ज्ञाना१२सीय मन। म ४२ता वन