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प्रमैयचन्द्रिका टीका श० ६ उ० ३ सू० ४ कर्मस्थितिनिरूपण १०९ एते त्रयोऽपि भजनया-कदाचिद् वध्नन्ति, कदाचिन्न वध्नन्ति, आयुर्वन्धकाले वघ्नन्ति तद्भिन्नकाले आयुष्यं न बध्नन्तीत्यर्थः, ' उवरिल्ले ण बंधइ' उपस्तिनः अन्तिमः नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयतः सिद्धो जीवः आयुर्ने वध्नाति । अथ सप्तमं दृष्टिद्वारमाह-'णाणावरणिज्जं णं भंते ! कम्मं किं सम्मदिट्ठी बंधइ ?' हे भदन्त ! ज्ञानावरणीयं खलु कर्म किं सम्कग्दृष्टिर्वध्नाति ? ' अथवा मिच्छदिट्टी बंधइ ?' मिथ्याष्टिबंध्नाति ? ' सम्मामिच्छदिही बंधइ ?' सम्यगमिथ्या: दृष्टिबध्नाति ? भगवानाह-गोयमा ! सम्मदिट्टी सिय बंधइ, सिय णो वंधइ ' हे गौतम ! सम्यग्दृष्टिः वीतरागः, तद्भिन्नश्च भवति, तत्र वीतरागसे करते हैं-अर्थात् जब आयुकर्म के बंध का समय होता है-तब करते हैं और जब उसके बंध का समय नहीं होता तब नहीं करते हैं । (उवरिल्ले ण बंधइ) तथा जो "नो संयत, नो असंयत और नो संयतासंयत सिद्ध जीव हैं" वे आयुकर्म का बंध नहीं करते हैं। ____अब सातवें दृष्टिद्वार की अपेक्षा सूत्रकार कथन करते हैं-इसमें गौतमने प्रभुसे पूछा है कि-(णाणावरणिज्जणं भंते ! कम्मं किं सम्मदिट्टी पंधइ) हे भदन्त ! ज्ञानावरणीय कर्म क्या सम्यग्दृष्टि बांधता है ? अथवा -(मिच्छद्दिही बंधह) मिथ्यादृष्टि बांधता है ? या (सम्ममिच्छद्दिट्ठी बंधइ) सम्यग मिथ्यादृष्टि बांधता है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभु गौतम से कहते हैं कि (गोयमा) हे गौतम ! (सम्यदिही सिय बंधह, सिय णो बंधा) सम्यग्दृष्टि जो जीव होता है वह ज्ञानावरणीय कर्मको बांधता भी है और नहीं भी बांधता है-इस कथन का तात्पर्य ऐ है कि છે-એટલે કે જ્યારે આયુકર્મના બંધને સમય હોય છે ત્યારે તેઓ આયુકર્મને બંધ કરે છે, પણ જ્યારે તેના બંધને સમય ન હોય ત્યારે તેઓ ते ४२॥ नथी. "उवरिल्ले ण बंधइ " तथा "नासयत, नमस: થત અને ને સંયતાસંતિ સિદ્ધ જીવે છે તેઓ આયુકમને બંધ કરતા નથી.
હવે સૂત્રકાર સાતમાં દૃષ્ટિદ્વારની અપેક્ષાએ નીચે પ્રમાણે પ્રરૂપણ કરે છે–ગૌતમ स्वामी महावीर प्रभुने मेरो प्रश्न पूछे छे ?-(णाणावरणिज्ज ण भंते ! कम्मं किं सम्मद्दिद्री बंधा) महन्त ! शु सभ्यष्टि ज्ञानावणीय भनी म
रे छ ? अथवा “मिच्छद्दिट्ठी बंधइ " भिथ्याट मधे छ ? मया " सम्ममिच्छद्दिवी बंधइ" सभ्य भिथ्याट मधे छ ?
Sत्तर-" गोयमा !" गौतम। (सम्मदिट्ठी सिय बंधइ, सिय णो धंधइ) सपट ज्ञानावरणीय भाना मध मांधे के पशु मरेमन