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भगवतीसूत्रे शरीरसंकोचापादनादिना वर्तुलीकरोति, श्लेपयति - पृथक् पृथक् स्थितान् समीपमानयति, संघातयति - परस्परं शरीरैः संहतान् संमिलितान् करोति, संघट्टयतिपरस्परमकोपादन स्पर्शयति परितापयति समन्ततः परिपीडयति, क्लमयतिव्यथयति मरणान्तिकदशां प्रापयति, 'ठाणाओ ठाणं संकामेइ 'स्थानात् स्थानान्तरं संक्रमयति नयति, 'जीवियाओ ववशेवेइ ' जीवितान् व्यपरोपयति पृथक्र करोति प्राणरहितान् करोति, ' तरणं भंते 1 से पुरिसे कइ किरिए ' ततः तदनन्तरं खलु हे भदन्त ! स धनुर्धारी पुरुषः कतिक्रियः ? जीवव्यपरोपणान्तेन क्रियत्क्रियाजन्यकर्मवद्धो भवतीति प्रश्नः
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भगवानाह - 'गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे धणु परानुस, धणुं परामुसित्ता पृथक् पृथक रहे हुए उन्हें एकत्रित कर देता है (संवाए ) उन्हें आपस में मिला देता है (संघछेद ) वह बाण उनके अङ्गोपाङ्गो को छू लेता है ( परितो ) चारों ओर से उन्हें वह पीड़ा पहुँचाने लगता है (किलामेइ ) उन्हें तिल मिला देता है अर्थात् मारणान्तिक दशा जैसी दशा उनकी कर देता है (ठाणाओ ठाणं संकामेइ ) एक स्थान से दूसरे स्थान में उन्हें पहुँचा देता है ( जीवियाओ ववशेवेह ) यहां तक कि अन्त में उन्हें वह प्राण रहित बना देता है ( तरणं भंते । से पुरिसे कइ किरिए ) ऐसी स्थिति में हे भदन्त | वह पुरुष कितनी क्रियाओं वाला माना जाना चाहिये अर्थात् जब बाण द्वारा वह उन प्राणियों आदिकों के जीवन का व्यपरोपण विनाश कर देता है तो उसे कितनी क्रियाओं से जन्य कर्म का बंध होता है ? इसके उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं कि (गोयमा) हे गौतम ! ( जावं च गं से पुरिसे धणुं परामुसई)
शोऽत्र ४री नाचे छे, "संघाएइ " ते माशु तेनने थे मील साथै मथडावी भारे छे, (संघट्टेइ ) तेभनां भगोयांगोनो स्पर्श रे छे, ( परितावेइ ) ते माथु तेने थोभेरथी थीडा थडथडे छे, ( किलाभेइ ) भारशान्ति हशा देवी तेभनी દશા કરી નાખે છે, "ठाणाओ ठाणं संकामेइ " तेभने थे स्थजेथी जीने स्थजे पडेगाडी हे छे, “ जीवियाओ ववरोवेइ " भने भन्ते तेभने प्राणुरहित मनावी नाचे छे. “ तएण भते ! से पुरिसे कइ किरिए ? " मेवी स्थितिमां ते પુરૂષને કેટલી ક્રિયાથી યુક્ત ગણવા જોઇએ ? કહેવાનુ' તાત્પ એ છે કે આ રીતે ખાણ દ્વારા તે જીવેનાં પ્રાણાના નાશ કરનાર તે ધનુ ર કેટલી ક્રિયા જન્ય માઁના મધ કરે છે ? ગૌતમ સ્વામીના આ પ્રશ્નના જવાબ આપતા भडावीर अलु ४हे छे–“ गोयमा !" हे गौतम! " जावं चणं पुरिसे धणु