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भंगवतीसूत्र परस्पराहताः सन्तश्चतुर्दिग्भ्य उर्धाधोभागाभ्यां च संमेल्य पडदिक्ष्वपि महताश्च श्रवणगोचरा भवन्ति, अतएवोक्तम् । जाब नियमा छदिसि ' इति,
गोतमः पुनः पृच्छति-'छउमत्थे णं भंते ! मणूसे ' हे भदन्त ! छद्मस्थः खंलु मनुष्यः 'कि आर गयाई सद्दाई सुणेइ पारगया सद्दाई सुइ' किम् आरा दुगतान् समीपस्थान इन्द्रियविषयतां गतान शब्दान् शृणोति ? अथवा किम् पार 'गतान् इन्द्रिय विषयतया परतोऽव स्थितान् शब्दान् शृणोनि? भगवानाह 'गोयमा ! हे गौतम ! आरगयाई सद्दाई सुणेइ' आराद् गतान् इन्द्रियनिकटस्थान शब्दान् शृणोति, ‘णो पारगयाई सदाइं सुणेइ ' नो पारगतान् इन्द्रियदूरस्थितान् शब्दान् शृणोति अथ गौतमः केवलिविषये प्रश्नं करोति 'जहाणं भंते ! इत्यादि। हे भदन्त । न्याय के अनुसार परस्पर में आहत होते हुए चारों दिशाओं में एवं ऊर्ध्व और अधोदिशा में फैल जाते है-तब वहां से वे अवणेन्द्रिय के विषयभूत बनते हैं। इस तरह छहों दिशाओं से आगत शब्द सुने जाते हैं ऐसा कहा है। __अब गौतम प्रभु से पुनः पूछते हैं कि 'छ उमत्थेणं भंते! मणूसे' .हे भदन्त ! छद्मस्थ मनुष्य 'कि आरगयाइं सदोई सुणेइ ?' 'जो शब्दों को सुनता है सो क्या वह इन्द्रिय के विषयरूप से पास में हुए शब्दों को सुनता है ? या इन्द्रिय के विषय से दूर हुए शब्दों को सुनता है ? इस के उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं कि 'गोयमा' हे गौतम ! ' आरगयाइं सहाई सुणेइ ' छद्मस्थ श्रोता इन्द्रिय के समीप रहे हुए ही शब्दों को-इन्द्रिय के योग्य देशस्थित हुए ही शब्दों को सुनता है इन्द्रिय के विषयभूतक्षेत्र से दूर रहे हुए शब्दों को वह नहीं सुनता है । इतनी बात सुनकर गौतम प्रभु से पुनः पूछते हैं कि 'जहा તથા ઊર્ધ્વ અને અધે દિશામાં ફેલાવા માંડે છે. એ આંદોલને જ્યારે કાન સાથે અથડાય ત્યારે જ અવાજ સંભળાય છે. માટે જ “છએ દિશામાંથી આવતા શબ્દને તે સાંભળે છે, ” એવું પ્રતિપાદન કરાયું છે.
प्रश्न- (छउमत्थेणं भंते ! मणूसे ) 3 महन्त ! ७५२५ मनुष्य (किं आरगयाई सहाई सुणेइ, पारगयाई सहाई सुणेइ १) शुं पासना शन्होने सामने છે કે દૂરના શબ્દોને સાંભળે છે ?
उत्तर (गोयमा! आरगयाइं सहाई सुणेइ) गौतम ! छस्थ श्रोता ઇન્દ્રિયની નજીકના શબ્દને-કન્દ્રિય દ્વારા શ્રવણ કરી શકાય એટલે અંતરેથી
આવતા શબ્દને-સાંભળે છે, પણ ઈન્દ્રિયના વિષયભૂત ક્ષેત્રથી દૂરના શબ્દોને * સાંભળતું નથી