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________________ १८० भगवतीसूत्रे प्यायुष्क प्रकुर्वन् द्विविधं द्विमकारक कर्म उपार्जयति, संमूच्छिम-गर्भव्युत्क्रान्ति भेदात् । तथा 'देवाउयं चउविहं ' देवायुष्क प्रकुर्वन् चतुर्विधं प्रकरोति, भवन पति- वानव्यन्तर-ज्योतिपिक- वैमानिकाभेदात् चतुः प्रकारक देवायुष्यं प्रज्ञप्तम् । उयं दुविहं' मनुष्यायु को भी वह दो विभागों में पांट देता है। संमृच्छिम मनुष्यायु में और गर्भजमनुष्यायु में । यदि अल्प आरंभ और अल्पपरिग्रह के रखने से जीव ने प्रकृतिभद्रकता-स्वभाव की कोमलता, प्रकृतिविनीतता-स्वभाव की नम्रता, सानुक्रोशाता-लयता और अमत्सरता आदि कारणों को लेकर मनुष्य आयुका बन्ध कर लिया है तो ऐसा जीव मनुष्यगति में उत्पन्न होगा, यदि उसने संमूच्छिम मनुष्यों में उत्पन्न कराने वाली आयु कर्म के कारणभूत आचरणों का अनुष्ठान किया है तो वह मर कर इनमें जन्म धारण करेगा और यदि गर्भज मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य आयु कर्म के कारणभूत कार्यों का सदनुष्ठान किया है और इससे उसने मनुष्यायु का बंध किया है तो वह इन गर्भज मनुष्यों में जहां पर उसके उत्पन्न होने की योग्यता होगी वहां पर उत्पन्न होगा। ' देवाउयं चउन्विहं' इसी प्रकार से यदि जीव ने सराग सम्पत्श्व-सरागसंयम, संयमासंघम-(देशविरति ) अकामनिर्जरा-बालतपः कर्म आदि कारणों के प्रभाव से देवायु का बंध कर लिया है तो वह उस आयु को चार विभागों में विभक्त कर सकता है। " भवनपति में, वानव्यन्तर में, ज्योतिपिक में, एवं वैमानिकों में । इनमें भी जिस निकायके भेदके योग्य आयु कर्मका बंध जीवने किया (१) सभूमि मनुष्यायु मन (२) शर्मा भनुष्यायु. . જે છ એ છ આરંભ અને ઓછો પરિગ્રહ કર્યો હશે. અને જે ભદ્રિતા, વિનીતતા, દયા, અને અમત્સરતા આદિ ગુણને કારણે મનુષ્પાયુને બંધ કર્યો હશે તે એ જીવ મનુષ્યગતિમાં ઉત્પન્ન થશે જે તેણે સંમૂચ્છિમ મનુષ્યમાં ઉત્પન્ન થવાને યોગ્ય આયુકર્મના કારણભૂત કાર્યોનું સેવન કર્યું હશે તે તે સંમૂ૭િમ મનુષ્યમાં જન્મ ધારણ કરશે. જે જીવે ગર્ભજ મનુષ્યમાં ઉત્પન્ન થવાને યોગ્ય આયુકર્મને બંધ કર્યો હશે, તે તે ગર્ભજ મનુષ્યમાં ઉતપન્ન थी. “ देवाय चउविह" वायुन॥ यार २ ४ा छ-(१) सपनपति (२) पानव्यन्त२ (3) न्यातिषिमने (४) वैमानिs. જે જીવે સરાગ સમ્યકત્વ-સરાગ સંયમ, સંયમ સંયમ (દેશ વિરતી) અકામ નિર્જરા (બાલત૫) આદિ કારણોને પ્રભાવે દેવાયુને બંધ કર્યો હશે, તે તે દેવગતિમાં ઉત્પન્ન થશે. ઉપરોક્ત ચાર પ્રકારની દેવગતિમાંથી
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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