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भगवतीसूत्रे टीका-प्रथमोदेशके दिक्षु दिवसरात्रिविभागः प्रतिपादितः, द्वितीयोदेशके तु तास्वेव दिखं वातविशेषान् प्रतिपादयितुमाह- रायगिहे ' इत्यादि । 'रायगिहे नयरे' राजगृहे नगरे 'जाव-एवं वयासी '-यावत्-एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेणं गौतमः अवादीत्-यावत्करणात् 'स्वामी समवसृतः, धर्मोपदेशं श्रोतुं पर्षत् निर्गच्छति, ततो धर्मोपदेशं श्रुत्वा प्रतिगता पर्पत् , ततो यावत्पर्युपासीनः' इति संग्राह्यम् । तदेव दर्शयति-' अस्थि णं भंते !' इत्यादि । हे भदन्त ! अस्तिसंभवति खलु एतत् , यदुत 'ईसिंपुरे वाया' ईपत्पुरोवाताः किश्चित् स्निग्धाः वाताः, 'पत्थावाया' पथ्याः वाताः, वनस्पतिप्रभृतीनां हितकारकाः वाताः वायुकायिक जीव जाता है तो वह उस समय शरीरसहित भी वहां जाता है और शरीर रहित होकर भी वहां जाता है।
टीकार्थ-प्रथम उद्देशक में, दिशाओं में दिवस और रात्रि का विभाग प्रतिपादित किया गया है। अब इस द्वितीय उद्देशक में उन्हीं दिशाओं में शास्त्रकार वायुविशेषों को प्रतिपादन करने के लिये ( रायगिहे ) इत्यादि सूत्र का कथन कर रहे हैं ( रायगिहे नयरे ) राजगृह नगर में (जाव) यावत् ( एवं वयासी) इस प्रकारसे गौतम ने प्रभु से पूछा (यावत् ) इस पद द्वारा यहां पर (स्वामी समत्रसृतः, धर्मोपदेश श्रोतुं पर्षद् निर्गच्छति, ततो धर्मोपदेशं श्रुत्वा प्रतिगता पर्षन, ततो योवत्पर्यु. पासीनः) इस पाठ का संबंध लगाया गया है । गौतम ने जो प्रभु से पूछा उसी विषय को अब शस्त्रकार प्रकट करते हैं ( अस्थिणं भंते ! हे भदन्त ! यह बात संभवित होती है कि (ईलिंपुरे वाया ) ईषत्पुरोवात कुछ २ स्निग्ध (चिक्कण ) वायु, (पत्थावाया) वनस्पति आदिकोंके लिये જીવે મરણ પામે છે. જ્યારે વાયુકાયિક જીવ મરીને બીજી ગતિમાં જાય છે, ત્યારે શરીરસહિત પણ ત્યાં જાય છે અને શરીર રહિત પણ જાય છે.
ટીકાર્થ–પહેલા ઉદ્દેશકમાં. ચારે દિશાઓમાં દિવસ અને રાત્રિના વિભાગનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. હવે એજ દિશાઓમાં વાતા વાયુ વિશેષોનું प्रतिपादन ४२वाने भाटे सूत्रा२ " रायगिहे " त्यादि सूत्रो ४ छ. ____"रायगिहेनयरे" गुड नारमा महावीरस्वामीन मागमन थयु, परिषद धपिश समिणवाने नlvl, धापहेश सासणीने परिषद पाठीश (जाव एवं वयासी) त्या२मा महावीरप्रभुने वा नभ२४२ ४रीन गौतभस्वाभीमे मा प्रभारी ५७यु-" जाव" ५४था अ शयेदा सूत्रनो सारांश ५ ७५२ मा छ) " अस्थिण भंते", महन्त । शुस पात समावित छ है " ईसिंपुरवाया) पपुरोपात (साडेर सडेन नियवायु), (पत्थावाया) ५थ्यवात-वनस्पति