SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 699
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृतागसूत्रे ६८७ छाया___. एवं स उदाहृतवान्ननुत्तरज्ञान्यनुत्तरदर्शी अनुत्तरज्ञानदर्शनधरः। ___ अर्हन् ज्ञातपुत्रो भगवान् वैशालिको व्याख्यातवानिति ब्रवीमि ॥२२॥ अन्वयार्थ:२. (एवं) एवमनेन प्रकारेण (से) सः-ऋपभस्वामी (उदाहु) उदाहृतवान् कथितवान् (अणुत्तरनाणी) अनुत्तरज्ञानी-केवलज्ञानवान् (अणुत्तरदंली) अनुत्तरदर्शी-केवलदर्शी (अणुत्तरनाणदंसणधरे) अनुत्तरज्ञानदर्शनधरः-सकलकर्मक्षयकारकः (नायपुत्ते) ज्ञातपुत्रः (अर हा) अर्हन् (भगवं) भगवान-बर्द्धमानस्वामी ऋषभस्वामी वा (वेसालिए) वैशालिकः-विशालाजननीजातो महावीरः, (वियाहिए) व्याख्यातवान् । (त्तिवेमि) इत्यहं तुभ्यं ब्रवीमि कथयामीति।।२२।। सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं - "एवं से उदाहु" इत्यादि। शब्दार्थ-एवं-एवम्' इस प्रकार 'से-सः' ऋषभ स्वामी ने 'उदाहुउदाहृतवान्' कहा था 'अणुनरनाणी-अनुनर ज्ञानी' उत्तम ज्ञान वाले 'अणुत्तरदंसी-अनुत्तरदर्शी अनुत्तर दर्शन वाले 'अणुत्तरे नाणदंसणधरे-अनुत्तरज्ञानदर्शनधरः उत्तम ज्ञान और दर्शन को धारणकरने वाले 'अरहा-अर्हन्' इन्द्रादि देवों के पूज्य 'नायपुत्ते-ज्ञातपुत्रः' ज्ञातपुत्र 'भगवं-अगवान् ऐश्व र्यादि गुणवाले वर्धमान स्वामीने 'वेसालिए-वैशालिक विशालानगरी में वियाहिए-व्याख्यातवान्' कहा था 'त्तिवेमि-इति ब्रवीमि' ऐसा मैं कहता हूं ।।२२।। -अन्वयार्थइस प्रकार उन ऋषभदेव ने कहा था । अनुत्तर ज्ञानी अनुत्तरदर्शी अनुत्तर ज्ञान दर्शन के धारक, समस्त कर्मों का क्षय करने वाले, अहंत ज्ञातपुत्र भगवान वर्तमान स्वामी ने भी विशाला नगरी में ऐसा ही कहा था ।।२२।' सपी स्वामी २४ ५२वाभान छ “एव से उदाह" त्या. शहाथ-एवं-एवम्' मारे से -स' ऋषम वाभीये 'उदाहु-उदाहतवान' म्यु तु. 'अणुत्तरनाणी--अनुत्तरज्ञानी' तम ज्ञानवा 'अणुत्तरद सी-अनुत्तरदर्शी' मनुत्तर शनवा 'अणुत्तरनाणद सणधरे-अनुत्तरज्ञानदर्शनधर' उत्तम जान माने शनने या२७ ४२वावा. 'अरहा -अहन्' न्द्र वगेरे देवाने पूल्य 'नायपुत्ते-ज्ञातपुत्र' जातपुत्र 'भगव --भगवान' मै वय वगेरे गुगुवाणा व भान स्वाभीये 'वेसालिएवैशालिके' विशद नगरीमा वियाहिए--व्यख्यातवान्' डस तु 'त्ति बेमि-इति ब्रवीमि' એવુ જ હું કહું છું કે ૨૨ છે સૂત્રાર્થ - અષભદેવ ભગવાને પૂર્વોકત મુક્તિમાર્ગનું પ્રતિપાદન કર્યું હતુ અને અનુત્તજ્ઞાની અનુત્તરદશી અનુત્તર જ્ઞાનદર્શનના ધારક, સમસ્ત કર્મોનો ક્ષય કરનારા જ્ઞાતપુત્ર વૈશાલિક હંત ભગવાન વર્ધમાન સ્વામીએ પણ એવુ જ પ્રતિપાદન કર્યું છે રસ
SR No.009303
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages701
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy