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________________ ४६६ सूत्रकृतागसत्रे 'पुणरवि' पुनरपि 'जीवियं' जीवितम् दशभेदभिन्नं संयमजीवनम् 'नो मुलभं' नो सुलभं नो सुनापं भवति । ते दशभेदाः (वोल) यथा मनुष्यजन्म१, आर्यक्षेत्रम्२, मुकुलम्३, दीर्घमायुः पञ्चेन्द्रियपूर्णत्वम्५, शरीरनैरुज्यम्६, साधुसङ्गतिः७, धर्मश्रवणम्८, धर्मश्रद्धा९, धर्मे वीर्यस्फोरणं चेति१० इत्येतहशप्रकारकसाधनसम्पत्तिर्मनुष्याणां न मुग्रापा भवति मा युप्माकमुपस्थिता तथापि किमर्थमत्र न पराक्रमत, किमेतेन क्षणध्वंसेन राज्येन युप्माकमिति श्रीभगवदादिनाथस्योपदेश इति । अस्मिन् श्लोके तालीयं छन्दः तल्लक्षणन्तु पड्विपमेऽष्टौ समे कलास्ताश्च समे स्युनों निरंतराः । न समात्र पराश्रिता कला वैतालीयेन्तरे रलौगुरुः ।।१।। नहीं लौटते । दश प्रकारका संयम जीवन भी फिर सरलता से मिलनेवाला नहीं हैं। वे दश प्रकार ये हैं (१) मनुष्य जन्म (२) आर्यक्षेत्र (३) मुकुल (४) दीर्घआयु (५) पांचों इन्द्रियोंकी परिपूर्णता (६) शरीरकी नीरोगता साधुओंकी संगति (८) धर्मश्रवण (९) धर्मश्रद्धा और (१०) धर्म में पराक्रम करना । दश प्रकारके इन साधनोंकी सम्पन्नता सभी मनुष्योंको सरलता से प्राप्त नहीं होती और वह तुम्हे प्राप्त है फिर तुम इस विषय में पराक्रम क्यों नहीं करते ? इस क्षणविनश्वर राज्य से तुम्हारा क्या हित होता हैं। यह भगवान् श्री आदिनाथका उपदेश अपने सांसारिक अठारह पुत्रोंके प्रति है। इस श्लोक में वैतालीय नामक छन्द है। इस छन्दका लक्षण इस. प्रकार है-'पड् विपमेऽष्टौ' इत्यादि । ते इस विAL अवस। नीय प्रमाणे 2. (१) मनुष्य कम, (२) आय क्षेत्र, (3) मुगुण (४) ही मायुष्य, (५) पाये ।न्द्रियानी परिपूर्णता (6) शरीरनी नागिता (७) साधुगाना या (८) धर्म श्रवा () श्रद्धा भने (१०) धर्ममा पराभ - દશ પ્રકારના આ સાધનોની સંપન્નતા સઘળા મનુષ્યને સરળતાથી પ્રાપ્ત થતી નથી પરંતુ તમને આ દસે સાધને પ્રાપ્ત થયા છે, છતા તમે શા માટે મેક્ષ પ્રાપ્તિ માટે પ્રયત્ન કરતા નથી? આ ક્ષવિનશ્વર રાજ્યથી તમારું શું હિત સધાવાનું છે? ભગવાન આદિનાથે તેમના ૧૮ સાંસારિક પુત્રોને આ પ્રકારને ઉપદેશ આપે હતું . આ શ્લેક વૈતાલીય છ૮માં લખાયે છે. વૈતાલીય છન્દનું લક્ષણ આ પ્રમાણે છે "षद विपमेऽष्टौ” अत्याहि
SR No.009303
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages701
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size38 MB
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