SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 457
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समर्थ बोधिनी टीका i प्र. श्रु अ. १ उ ४ अन्यवादिनां मतनिरूपणम् ४४३ यदपि उक्तम् - ब्रह्मणः स्वापप्रवोधौ प्रलयप्रभवौ, तदपि प्रमाणहीनतयाँ समुपेक्षणीयमेव । वस्तुतो जगतोऽस्य परिदृश्यमानस्य पृथिव्यादिलोकस्य नैकान्तिकोत्पादविनाशौ भवतः । , 'नकदाचिदनीदृशं जग' दितिवचनात् द्रव्यतया जगतः = सर्वदैव स्थितिरिति । तदेवमनन्तादिकं जगदितिलोकवादं गाथापूर्वार्द्धन निराकृत्य यथावस्थितस्वभावस्याssविर्भावनं गाथापश्वादेन प्रकाशयति- 'जे ण ते' इत्यादि से' तेषां सस्थावराणां जीवानां 'परियए' पर्याय: = रूपान्तरम् 'अस्थि' अस्तीति 'अंजू' अञ्जु स्पष्टं विद्यते ' जेण' येन पर्यायेण पर्यायमाश्रित्येत्यर्थः 'ते' 1 यह कहना कि ब्रह्मा का शयन प्रलय है और जागरण सृष्टि है, वह भी प्रमाणशून्य होने के कारण उपेक्षणीय है । वास्तव में दिखाई देने वाले इस पृथ्वी आदि स्वरूप वाले जगत् का एकान्त रूप से न उत्पाद होता हैं, न विनाश । द्रव्य रूपसे जगत् सदैव बना रहता है। कहा भी है- " न कदाचिदनीदृशं जगत् " इति । ' यह जगत् कभी ऐसा नहीं था, ऐसी बात नहीं है अर्थात् जगत् सदा ऐसा ही बना रहता है ।' इस प्रकार जगत् अनन्तादि रूप है, इस लोकवाद का गाथा के पूर्वार्ध द्वारा निराकरण करके यथार्थता को प्रकट करने के लिए गाथा का उत्तरार्ध कहते हैं- " जेण ते " इत्यादि । स और स्थावर जीवों का रूपान्तर होता है, यह स्पष्ट हैं । अतएव पर्याय रूपसे वे स और स्थावर होते हैं, अर्थात् सजीवकर्मोदय से स्थावर हो जाते हैं और स्थावर स रूप से उत्पन्न हो जाते हैं । બ્રહ્માનુ શયન પ્રલય રૂપ છે અને જાગરણુ સૃષ્ટિરૂપ (સનરૂપ) છે,” આ પ્રકારનું કથન પણ પ્રમાણુ શૂન્ય હાવાથી ઉપેક્ષણીય છે પ્રત્યક્ષ દેખાતા આ પૃથ્વી'' આદી સ્વરૂપવાળા જગા એકાન્ત રૂપે ઉત્પાદ પણ થતા નથી, અને વીનાશ પણ થતા નથી. द्रव्य ३ये भगत्नु अस्तित्व सहाण टडी रहे छेउ छे - " न कदाचिदनीश जगद्" इत्याहि - " मा भगतनु उही मा अक्षरतु स्व३५ न हेतु, मेवी अर्ध वात नथी" એટલે કે જગત્ સદા એવુ ંતે એવુ જ રહે છે આ પ્રકારે જગત્ અનન્તાદિરૂપ છે, આ લેખ્વાદનુ ગાથાના પૂર્વાધ દ્વારા નિરાકરણ उरीने, यथार्थता अउट २वा भाटे सूत्र े - " जेण ते” प्रत्याहि ત્રસ અને સ્થાવર જીવાનુ રૂપાન્તર થાય છે, આ વાત સ્પષ્ટ છે. ત્રસ જીવેાકમેયને લીધે, સ્થાવર જીવ, રૂપે ઉત્પન્ન થઇ જાય છે, અને સ્થાવર જીવે કમેર્માંદયથી ત્રસ જીવ રૂપે ઉત્પન્ન થઈ જાય છે.
SR No.009303
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages701
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy