SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 441
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयार्थचोधिनो टीका प्र. . अ. १७४ पुन अभ्यतीथि कमतनिरूपणम् ४२७: . अन्वयार्थ:- HARE (लोगवायं) लोकवाद पौराणिकानां सिद्धान्तम् । (णिसामिज्जा) निशा मयेत्, श्रृणुयात् पौराणिकवादः श्रोतुं योग्य इति भावः । ___ एवं (इह) इह अस्मिन् संसारे (एगेसि) एकेपा केपांचित् (आहिय). आख्यातम् कथनम् अस्ति परन्तु वस्तुतः- पौराणिकानां कथनम् . (विपरीय पनसभूयं) विपरीतप्रज्ञासंभूतम् विपरीतबुद्ध्या रचितं । विद्यते । तथा: (अन्नउत्त) अन्योक्तम् अन्यैरविवेकिभि यत्कथितम् (तयाणुगं) - तदनुगम्तदेवाऽनुगच्छतोति भावः ।५।। टीका'लोगवायं' लोकवादम्, लोकानां= पौराणिकलोकानां वादः= सिद्धान्तः फिर उन्हीं के मत का निरूपण करते हैं-" लोगवायं " इत्यादि । शब्दार्थ-'लोगवाय-लोकवादम' लोकवाद अर्थात् पौराणिकोंके सिद्धांतको 'णिसामिज्जा-निशामयेत्' सुनना चाहिए 'इह-इह' इस संसार में 'एगेसिएकेपां' किन्हीका 'आहियं-आख्यातम् ' कथन है । 'विपरीयपन्नसंभूयं-विपरीत-- प्रज्ञासंभूतम् ' परंतु वस्तुतः पौराणिकोंका सिद्धांत विपरीत बुद्धिसे रचित है, तथा 'अन्नउत्त-अन्योक्तम्' अन्य अविवेकियोंने जो कहा हैं 'तयाणुगं-तदनुगम् ' उसका अनुगामी हैं ॥५॥ -अन्वयार्थलोकवाद को, जो पौराणिकों का एक मन्तव्य है, सुनना चाहिए अर्थात् वह सुनने योग्य है । ऐसा किन्हीं का कथन है, किन्तु उनका यह कथन विपरीत बुद्धि से कहा हुआ है तथा अन्य अविवेकियों के कथन के समान है ॥५॥ सूत्र॥२ मन्यतयाना भतनु विशेष नि३५ ४२ छे "लोगोय": Vत्याम: Avat:-'लोगवाय-लोकवाद म्' या अर्थात् पौराशिसोना सिद्धान्त ने जिसा मिजा-निशामयेत्' सामने 'इह-इह' मा संसारमा 'परोसि -पकेषां पर 'आहिय-आख्यातम्' - ४थन छ 'विपरियपन्नस भूय -विपरीतप्रज्ञास भूतम्' ५२तु तुत पौराणिोनी सिद्धात विपरीत सुद्धिथी २यत छ,' तथा 'अन्न उत्त-अन्योक्तम् भन्य मविध्यारो रे छ 'तयाणुग-तदनुगम्' तनु अनुगामी छे ॥५ સૂત્રાર્થ પૌરાણિકેનું એવુ મતવ્ય છે કે લોકવાદનું શ્રવણ કરવુ જોઈએ તેઓ લવાદ શ્રવણ કરવા યોગ્ય માને છે પરંતુ તેઓ વિપરીત બુદ્ધિને લીધે આ પ્રકારનું કથન કરે છે તેથી તે કથનને અન્ય અવિવેકી જેના કથન સમાન જ માનવું જોઈએ . ' . '
SR No.009303
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages701
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy