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________________ समयार्थ योधिनी टीकाप्र. श्रु अउ २ अज्ञानवादिनां स्वं परच बोधने असामर्थ्य त्वम् ३०७ 1 बने मूढो यथा :जन्तु नेतारमनुगामिक ... - : - द्वावश्येतावकोविदो तीव्र शोक: नियच्छतः ॥१८॥ . . अन्वयार्थ- .. . (जहां) यथा (वणे) वने (मूढे) मूढा दिशामूढः (जंतू) जन्तूः= प्राणी (मुढे णेयाणुगामिए) मूढनेतारमनुगामिकः दिङ्मूढं नेतारमनुगामी (एए दोवि) एतौ द्वापि-गन्ता गमयितां च (अकोविया) अंकोविदी-मार्गज्ञाने उभावपि समानावेव दिङमोहेन विपर्यस्तबुद्धित्वात्, अतस्तौ (तिव्वं सोयं) तीव्र शोकम् अत्यन्त दुःखम् (नियच्छइ) नियच्छतः प्रामुतः ॥१८॥ टीकाभावगम्या, भावश्चायम्-यथा अतिनिविड़े व्याघ्रादि समाकुले वने भ्रमन् यह बेचारे अज्ञानवादी न अपने को समज्ञा सकते हैं और न दूसरोंको यह तथ्य दृष्टान्त द्वारा दिखलाने के लिए कहते है-“वणे मुढो "इत्यादि शब्दार्थ-'जहा-यथा' जैसे 'वणे-वने', वनमें 'मूढे-मूढः' दिशामूढ 'जतू--जन्तुः प्राणी 'मूढेणेयाणुगामिए--मूढनेतारमनुगामिकः' दिशामूढ नेताके पीछे चलता है, तो 'एए दोवि-एतौ द्वावपि' वे दोनों ही. 'अकोविया--अको-- विदौ' मार्ग नहीं जानने वाले हैं, इसलिए वे 'तिव्वं सोयं--तीनं शोकम' अत्यन्त दुःखको 'नियच्छ्इ-नियच्छतः', प्राप्त होते है ॥१८॥ --अन्वयार्थ-- ' जैसे वनमें दिशामूह प्राणी,जो दिशामूळे पथप्रदर्शक के पीछे पीछे चल रहा हो ये दोनों मार्ग नहीं जानते । दोनों उलटी बुद्धिवाले है । दोनों ही तीव्रदुःखको प्राप्त होते हैं ॥१८॥ . .. .. :-टीकार्थः- . टीका भावगम्य है और भाव यह है-जैसे व्याघ्र आदि से युक्त सघन वन" (કાચારાતે અજ્ઞાનવાદીઓ તે સમજી શકતા નથી અને બીજાને સમજાવી પણ શક્ત नथी, मी वातने हटान्त द्वारा सूत्र४२२५८ ४२ छ “वणे मूढो”, त्या , : शहाथ-'जहा-यथा' म 'वणे-वने' वनभी मूढे-मूढः शाभूट ‘ज तू जन्तु प्राणी मूढे गेयाणुगामिए-मूढनेतारमनुगामिक', विशाभूद नेतानी पायो । 'एए दो वि-एतौ द्वावपि समन्न प्रकोविया-अकोविदो भागथा मन्तवाथी 'तिन्त्र सोय-तीव्र शोक' अत्यंत शाने नियच्छइ-नियच्छत' पास थांय छ १cil 'मन्वयाथ । * દિશામૂઢ ( દિશા ભૂલેલે માર્ગથી અજાણું) કેઈ પથ પ્રદર્શક હોય તેની પાછળ-કઈ દિશામૂહ અન્ય પુરુષ ચોલી નીકળે અને માર્ગને જાણકાર નહી હોવાને કારણે વિપરીત सुद्धपाणाडावाने. १२ वनमा तीन अनुभव छ , ॥१८॥ . . ! મ દષ્ટાન્ત ભાવાર્થ સમજી શકાય એમ છે. વાદિ હિ સક પશુઓથી યુક્ત કઈ દંડ -टाथ
SR No.009303
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages701
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size38 MB
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