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________________ समयार्थ बोधिनी टीका प्र श्रु अ १उ २ अज्ञानिपुसा अप्राप्य पदार्थनिरूपणम् २९३ क्रोधम्' लोमानमायाक्रोधात् - 'विहणिया 'विधूय-परित्यज्य । लोमादयो हि कपायाः, एतेपां परित्यागेन मोहनीयकर्मणः परित्यागो हि प्रतिपादितो भवति । मोहनीयकर्मणः परित्यागेन च सकलकर्मणां परित्यागः प्रतिपादितो भवति । उक्तंच "जह मत्थयसूईए, हयाए हम्मए तलो । तह कम्माणि हम्मंति, मोहणिज्ज खयं गए ।। ९ ।। छाया--यथा मस्तके सूच्या हतायां हन्यते तलः ।। तथा कर्माणि हन्यन्ते, मोहनीये क्षयं गते ।। ९ ।। इति ।। तेन जीवः 'अकम्मसे' इति अंकमांश:- न विद्यते कर्मणाम् अंशः यस्य स. अकर्मांशः कर्मरहितो. भवति । कर्मणां विनाशश्च सम्यग् ज्ञानात् जायते, न तु मिथ्याज्ञानात् । एतदेव दर्शयति--"एयम एतमर्थ कमांशाऽभावस्वरूपम् 'मिए' _ अन्वयार्थ और टीका सभी के अन्तःकरण में जिसका वास है, ऐसे लोभ को सर्वात्मक कहते हैं । व्युत्कर्ष का अर्थ मान है णूम अर्थात् माया और अप्पत्तियं का मतलब है क्रोध । इस प्रकार लोभ, मान, माया और क्रोध से सम्पूर्ण मोहनीय कर्मका ग्रहण हो जाता है और मोहनीय कर्म से समस्त कर्मों का ग्रहण समझ लेना चाहिये । इस प्रकार लोभादि कपायों के त्याग से समस्त मोहनीय कर्म का त्याग समजना चाहिये मोहनीय कर्म के त्याग से सभी कर्मों के त्याग कों समजना चाहिए । कहा भी है "जह मत्थयाईए" इत्यादि । जैसे ताडवृक्ष के मस्तक मे सूई का आघात होने पर तालवृक्ष सूख जाता है, उसी प्रकार मोहनीय कम का क्षय होने पर समस्त कर्मों का घात हो जाता है ॥१॥ कर्मों के क्षय से जीव 'अकर्मा' कर्मों से रहित हो जाता है। कर्मों का क्षय सम्यग्ज्ञान से होता है, मिथ्याज्ञान से नहीं । अज्ञानी जीव इस अर्थ को त्याग देता है अर्थात् कर्मक्षय रूप अर्थ से भ्रष्ट हो जाता है । સ પૂર્ણ મેહનીય કર્મનું ગ્રહણ થઈ જાય છે, અને મેહનીય કર્મ વડે સમસ્ત ક નું ગ્રહણ થાય છે, એમ સમજવું, અને મેહનીય કર્મના ત્યાગથી સમસ્ત કર્મોને ત્યાગ સમજ नये :यु पछे "जह मत्थयसूईए" त्यle * “ જેવી રીતે તાડવૃક્ષના મરતક (ટોચ) પર સંય ભેંકી દેવાથી તાડવૃક્ષ સૂકાઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે મેહનીય કર્મોને ક્ષય થઈ જવાથી સમસ્ત કર્મોને ક્ષય થઈ જાય છે ૧n કને થાય થઈ જવાથી જીવ” અર્કમ' (કર્મોથી રહિત) થઈ જાય છે કમેને ક્ષય સમ્યગ જ્ઞાનથી જ થાય છે, મિથ્યાજ્ઞાનથી થતો નથી અજ્ઞાની જીવ આ પદાર્થને ત્યાગ કરે છે
SR No.009303
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages701
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size38 MB
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