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________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र भ्र अ. १ उ २ असम्यक्ज्ञानफल निरूपणम् २८७ पूर्वोक्तगाथात्रयेण दृष्टान्तं प्रदश्य दाष्टन्तिकेऽपि असभ्य ज्ञानम्य फलं दर्शयितुमाह-' एवं 'तु समणा' इत्यादिग् 11 ! मूलम् ३.) १२५ ४F 1 ५ एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्टी अणारिया । , ६ ७ असंकियाई संकंति, संकिथाई असंकिणा ॥१०॥ SHREE छाया TFEL एवं तु श्रमणा एकै मिथ्यादृष्टयोऽनार्याः अशङ्कितानि शङ्कते शङ्कितानि अशङ्किनः ॥ १० ॥ अन्वयार्थ:गय" ( एवं तु) एवं तु अनेन प्रकारेण (एंगे) एके- केचन (मिच्छदिट्टी) मिथ्या दृष्टयः अतएव (अणारिया) 'अनार्याः - हेयधर्मादूरीभूता आर्याः न आर्या अनार्याः लेता है फसा लेता है । वह ऐसे पाश जाल में बद्ध होकर मृत्यु को प्राप्त होता है । किसी प्रकार भी उसकी रक्षा नहीं होती है ॥९॥ " पूर्वोक्त तीन गाथाओं में 'दृष्टन्त दिखलाकर दाष्टन्तिक में भी मिथ्या ज्ञान का फल दिखलाते हैं- ' एवं तु समा" इत्यादि । शब्दार्थ - ' एवं तु एवं तु' इसी प्रकार 'एगे एके' कोई 'मिच्छदिहीमिथ्यादृष्टयः मिथ्याईष्टि वाले 'अणारियां-अनार्याः' 'अनार्य 'समणा - श्रमणाः श्रमण 'असंकियाई-अशङ्कितानि ' शंका रहित ऐसे 'अनुष्ठानों में 'संकेति शङ्कन्ते' शंका करते हैं तथा 'संकियाइँ' शङ्कितानि ' शंका करने 'योग्य' अनुष्ठानों में 'असंकिणोअशइकिनः' शंका नहीं करते हैं ॥१०॥ " તે બિચારું અજ્ઞાની મૃગ ૩ જાળના પાશમાં એવુ તેા સપડાઈ જાય છે કે તેમાથી મુક્ત થઇ શકતુ નથી આ પ્રકારે જાળમાં બન્ધને દર્શાયુક્ત ખનેલુ તે મૃગ આખરે મૃત્યુ 2 " " + पायें छे 111 117 પૂર્વોક્ત ત્રણ ગામા દૃષ્ટાન્ત પ્રકટે કરવામાં આવ્યુ હવે 'સૂત્રકાર દાર્ણાન્તિકમા पशु मिथ्याज्ञाननु ण णतावे हे "" एवं "तु समण " " त्या शब्दार्थ-'पव तु एव तु' 'थे ''★भाएँ! 'छ्गे एके' 'मिच्छदिट्ठी मिथ्यादृष्टय मिथ्यादृष्टिवाणा 'अगारिया -अनार्या' अनार्य "समणा - श्रमणा' श्रम ' अस कियाइ - - अशङ्कितानि शा विनाना सेवा अनुष्ठानोभा 'स' के ति-शृङ्कन्ने' शी रे छे तथा 'स कियाइ - शङ्कितानि ' (२वा वा अनुष्ठानोभा' 'अस किणो-अशङ्किन' शश કરતા નથી 1૧૦] 14 """
SR No.009303
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages701
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size38 MB
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