________________
मेरा जीवन धन्य
मैं जैन हूं, मेरा दर्शन भी जैन है, और चारित्र वीतराग यही मेरा स्वरूप अनंत काल, त्रिकाली, अविनाशी ही है मैं जानूं मेरे ज्ञान से तो ऐसे ही मेरे शुद्ध स्वरूप को ही यही मेरा पूर्ण शुद्ध स्वरूप ही मेरा पूज्य, ध्येय भी है.
मैं मानूं तो मेरे ही पूर्ण अयोगी, अकर्ता रूप को ही यही तो मेरा है, मेरे साथ ही सदा रहने वाला भी है मैं रमण करूं, चरूं, तो मेरे ही सुन्दर त्रिकाल रूप में यही तो मेरे गुणों का, सुगंधों का, मेरा ही एक बाग है.
इससे बाहर तो सभी ही है पराया, कभी भी नहीं मेरा जानता तो मैं ही हूं, इसीलिए मैंने जाना सभी पराया मैं, मैं हूं, और विश्व को भी पूर्णता से जाननेवाला तो मैं ही हूं, और मैंने ही जाना है विश्व का सत विश्व रूप.
मेरे ही जैन दर्शन के पंच परमेष्ठियों ने यह सब स्वयं जानकर, मानकर, रमण करते हुए ही मुझे और सारे अनंत जीवों को भी यह शाश्वत पूर्ण सत बताया है समझाया है वीतराग शास्त्रों की रचना की है दिव्य ध्वनी में आया है.
197