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जाल
आदमी स्वयं की डिग्रियों, पदवियों, दुनिया के ज्ञान से वशीभूत होकर ही इस दुनिया में भटकता रहता है माली अपने पोधों को, सफाई करने वाला कचरे को कितनी अच्छी तरह से जानता है, ओर उसी ज्ञान में तो कामयाबी भी मानता है, यही पोधों का ज्ञान, माली को इस दुनिया में भ्रमण करने की ही सामग्री देता है.
डाक्टर, वकील, इंजिनियर, संशोधक, सभी स्वयं के ही विषय में इतने डूब जाते हैं कि सत से ही दूर हो जाते हैं पहले जीव इस बात का विश्वास कर ले कि मैं इस दुनिया से, दुनिया के ज्ञान से, भिन्न, अलग, चैतन्य तत्व ही हूं तो फिर जीव, इस दुनिया के ज्ञान, सही में अज्ञान, के वशीभूत न होकर, जाल में न फसकर, स्वयं भटकता न रहे.
जैसे शेर भय के वशीभूत होकर स्वयं के स्वभाव को ही भूल सर्कस में लकड़ी के इशारे पर खेलता है, कूदता है इसी तरह यह जीव भी इस दुनया में, दुनिया के परद्रव्यों के जाल में ऐसा तो फसता है, कि उसे क्या मालूम, सत क्या? स्वयं का स्वभाव, ज्ञानस्वरुप, जो आनंद और शांतिमय क्या ? न जाने ज्ञेयों को, न जाने ज्ञान को, तो फिर ज्ञायक भाव क्या?
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