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जय मोह सुभट को नाश कौन, जय कुसुम बाण को हरप्रवीण।।3।।
जय आतापन तुम योग धार, दश धर्मादिक सेवत उदार। जय रत्नत्रय धर धर्म आप, जय विषय भोग नाशक सुचाप।।4।।
जय विद्वतरत्न कहत आप, जय चर्चा करते सुख अलाप। जय पढ़े पढ़ावे शिष्य जान, याते पाठक तुम नाम मान।।5।। जय शिक्षा अद्भुत जगत मान, जय शिष्यों का नाशे कुज्ञान। जय गुरुवर हो तुम निर्विकार, जय काम कषायों को विडार।।6।।
जय अंगसु एकादश प्रमाण, अरु चवदह पूरब है सुमान। इन ज्ञान भयो है आप नाथ, कर जोड़े नावे नित्य माथ।।7। तब पाठक सब जग कहत नाम, सब जीव रटत है सरत काम। जय सौम्य मूर्ति है परम शांत, गुण पच्चीस धारें हो प्रशांत।।8।। जय पाठक हो शिव तिय रमन्त, जय ध्याता ध्यानी कहत सन्त। अध्यात्म रसिक हो सुगुण खान, जय ज्ञानामृत का करत पान।।9॥
तब गावे गुरुवर गुण अपार, याते मिलती है मुक्ति नार। सूरजमल करता नमस्कार, संसार जलधि से वेगि तार।।10॥
धत्ता जय पाठक ध्याऊं पूज रचाउं तिन गुण गाउं हर्ष धरूं। __ भव ताप निवारी विपत विडारी बहु गुण धारी नमन करूं।। ऊँ ह्रीं श्री पंचविंशति मूलगुणोपेत श्री उपाध्याय देवोभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
पाठक पूजो भाव से हर्ष महा उर धार। सुख सम्पत्ति बाढ़े सदा पुनि पावे शिव नार।।
(इत्याशीर्वाद)
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