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हे कर्म दूजा दर्शवी दर्श गुण सब ढक लिया। नष्ट कर नव प्रकृति तिस की दर्शगुण जिन पालिया।। लोकाग्र राजे निज सु साजे गुण सु वसु तुम पाइया।
हम नमन करके पद यजे अति मोद मनसु बढ़ाइया।। ऊँ ह्रीं नव प्रकार दर्शनावी कर्म प्रकृति विनाशक सिद्ध परमेष्ठिभ्यो अध्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।2।।
हे वेदनी इक कर्म तीजा, दुःक्ख सुख वह देत हैं। नाश कीना सहज में जिन, सुख अबाधसु लेत हैं।। लोकाग्र राजे निज सु साजे गुण सु वसु तुम पाइया।
हम नमन करके पद यजे अति मोद मनसु बढ़ाइया।। ऊँ ह्रीं द्वि प्रकार वेदनी कर्म प्रकृति विनाशक सिद्ध परमेष्ठिभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।3।
इक कर्ममोहनी दुष्ट है जो जगत जन सब बस किया। नाश कीना ध्यान अग्नि पाप समकित सुख लिया। लोकाग्र राजे निज सु साजे गुण सु वसु तुम पाइया।
हम नमन करके पद यजे अति मोद मनसु बढ़ाइया।। ऊँ ह्रीं अष्टाविंश मोहनी कर्म प्रकृति विनाशक सिद्ध परमेष्ठिभ्यो अध्यं निर्वपामीति
स्वाहा॥4॥
संसार के सब जीव देखे चार आयु वसि भये। ध्यान भासुर कर्म जारे नार शिव प्रिय तुम भये।। लोकाग्र राजे निज सु साजे गुण सु वसु तुम पाइया।
हम नमन करके पद यजे अति मोद मनसु बढ़ाइया।। ॐ ह्रीं चतु प्रकार आयु कर्म प्रकृति विनाशक सिद्ध परमेष्ठिभ्यो अध्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।5।।
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