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जब तन से मोह तजा, केशों से कैसे प्रीति रखी जावे। केशों को फेंक उखाड़ सौम्यता मुनि पद की बढ़ती जावे।।
इस हेतु करें मुनि केशलुंच, दर्शक को स्मरण कराते हैं।
तन के हित पाप नहीं पालो, सब देह छोड़ कर जाते हैं।। ऊँ ह्रीं केशलुंच गुण भूषिताय साधु परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।25।
धर्माराधन में साधन बन, ग्रह देह देह सी बनी रहे। हो जाय न यह ऐसी सुडौल, जो सदा अकड़ में तनी रहे।। । अतएव मुनीश्वर लेते लघु, आहार दिवस में एक बार।
विधि विहित, भक्त श्रावक जो दें, वह लेते भोजन निर्विकार।। ऊँ ह्रीं एक अशन गुण भूषिताय साधु परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।26॥
आहार ग्रहण कर लेने पर, कर लेत दांतों का भंजन। मुख का सब स्वाद समाप्त रहे, मुख का करते यों परिमार्जन।। फिर दातुन से कुछ काम नहीं, अणुमात्र न मुख में जा पाता।
ऐसे दुर्धर तप धारी के, सम्मुख है मस्तक झुक जाता।। ऊँ ह्रीं दन्तमंजनाभाव गुण भूषिताय साधु परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥27॥
थाली में दिया परोसा जो आहार न लें ऐसा मुनिवर। ठाड़े होकर कर पात्र बना सीमित आहार करें ऋषिवर।।
खट्टे मीठे पर ध्यान नहीं, जो अंजलि में आ जाता है।
वह सरल शुद्ध आहार सदा, मुनितन की भूख मिटाता है।। ऊँ ह्रीं खडगासने एक अनशन गुण भूषिताय साधुपरमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति
स्वाहा।।28।
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