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________________ पौद्गलिक पुण्य वर्गणा रूप, प्रभु तन का जो सौंदर्य खिला। उस कुन्दन तन में जो खाया, उसको कुन्दर सा मान मिला।। इस हेतु जन्मतः प्रभु तन में, मल मूत्रादिक की उपज नहीं। लोहा पारस छं स्वर्ण बने, इसमें किंचित आश्चर्य नहीं।।7। ऊँ ह्रीं निहाराभावातिशय मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु जन्म समय, उनके तन में, आठ अरु सहस्त्र शुभचिन्ह रहें। वे पद्म चक्र शंखादि रूप में, सकल देह-प्रतिपन्न रहें।। वे शुभ लक्षण तीर्थंकर होने का संदेश सुनाते हैं। शास्वत, निर्बाध निराकुल शिव, सुख पायेंगे, बतलाते हैं।।8।। ऊँ ह्रीं 1008 शुभ लक्षणयुक्त तन रूपातिशय मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। संस्थान सु सम चतुरस्त्ररूप, प्रभु तन की सुन्दर रचना हो। सव अवयव योग्य मधुर आकृति, धारें ऐसा अनुपम तन हो। जो पुदगल तन, कर्मानुसार, फल पाने, करागार जने। वे पुद्गल पुण्य वर्गणा, प्रभु तन वन, मुक्ती की द्वार बने।॥9॥ ऊँ ह्रीं समचतुरस्त्र संस्थान रूपाकृति गुण मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। हो जन्म समय से बज्रवृषभ नाराच संहनन विश्वजयी। हों व्रजरूप सब अस्थि वर्ग, वेष्ठन कीलें हों वज्रमयी।। इस हेतु बाहुवलि, एक वर्ष, अंगुष्ठ खड़े, तपलीन रहे। हनुमन्त गिरे, पाषाण शिला टूटी, महिमा किस भांति कहें।।10। 768
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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