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सलिल चंदन तंदुल पुष्पकै, दीप नेवज धूप फलार्घकै। लब्धिक्षायक सम्यक् धारकं, जिनवरं युग पूजि पदाब्जकम्॥ ऊँ ह्रीं क्षायकलब्धिधारक जिनेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।9।।
प्रत्येक अर्घ (अडिल्ल छंद) भाव जीव के नादिसांत मिथ्यात है, सो निसर्ग अधिगम द्वे कारण घात है। सम्यक् सादृश सम्यक् प्रापति गुण सही। अनेन वर” मिथ्या तादृशता लही।। ऐसी क्षायक सम्यक् लब्धि सुहावनी, यो धारत जिनदेव परम गति पावनी।।
तिनके पद मैं नमूं शीश निज नायके, आठों द्रव्य चढ़ाय भावना भायके।। ऊँ ह्रीं निसर्गजादि मिथ्यात्वभावनिवारकेभ्यः सम्यग्लब्धिप्राप्तेभ्यः भगवत् जिनेभ्यः अर्घ
निर्वपामीति स्वाहा॥1॥
सम्यक् भाव सु अंतर च्युत जो काल है, सासादन आस्वादयति सो हाल है।
धरत लब्धि यह श्री जिनवर पूजूं सदा, फेर भ्रमण जग माहिं होय नाहीं कदा।। ऊँ ह्रीं सम्यक्तवच्युते सति सासादन भाववर्जितेभ्यः सम्यक्त्वलब्धिप्राप्तेभ्यः अर्घ निर्वपामीति
स्वाहा।।2॥
सम्यक् मिथ्या सहित मिले जो भाव है, तिष्ठति यावत् काल सु मिश्र कहाव है।
ऐसा सम्यक् लब्धि धरै जिनदेव है, तिनके पद नित जजू अर्घ वसु भेव है।। ऊँ ह्री सम्यग्मिथ्यात्व मिश्रितभाववर्जितेभ्यः सम्यक् लब्धिप्राप्तेभ्यः अर्घ निर्वपामीति
स्वाहा।।3॥
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