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ओं ह्रीं श्री सर्वकर्मबन्धनविमुक्त सकलविघ्नशान्तिकर ! मंगलप्रद द्वादशकामदेव !
श्रीशान्तिनाथ भगवन ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ओं ह्रीं श्री सर्वकर्मबन्धनविमुक्त ! सकलविघ्नशान्तिकर ! मंगलप्रद ! षोडशतीर्थंकर ! श्रीशान्तिनाथ भगवन अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्।
इति षोडशदलात्मकद्वितीयवलयोपरि पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्।
भक्तिभावयुत प्रभुपूजन को, इन्द्र जिनालय आवें। तीर्थंकर पदवी के कारण, श्री जिन के गुण गावें।।
श्री जिनप्रभु के पद-पंकज की, पूजा इन्द्र रचावें।
दर्शन ज्ञान अनन्त सुखामृत, बल विक्रम वे पावें।।1। ओं ह्रीं श्री जगदापद्विनाशनहेतवे विदेहादिशतैकसप्ततिक्षेत्रार्यखण्डे भूत भविष्यद् वर्तमानार्हत्परमेष्ठिपदपंकजे सन्मतिसद्भक्त्युपेतामलतरखण्डोज्झितनिदानबन्धनाय कृतेज्याय
श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टकर्म से मुक्त निरंजन, सिद्धस्वरूपी राजें। क्षायिकसम्यक आदि गुणोत्तम, सीमातीत विराजे।। भूत भविष्यत् वर्तमान के, सिद्ध अनन्त निरंजन।
निजस्वरूप में लीन प्रभु की, करता पूजन वन्दन।।2।। ओं ह्रीं श्री जगदापविनाशनहेतवे भरतैरावतविदेहादिशतैकसप्ततिक्षेत्रार्यखण्डे भूत भविष्यद्वर्तमानसिद्धपरमेष्ठिपदपंकजे सन्मतिसद्भक्त्युपेतामलतरखण्डोज्झितनिदानबन्धनाय
कृतेज्याय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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