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उपभोग लब्धि पूजा उपभोग विषै जो अंतराय, तिन नाशठानि ली लब्धि पाय।
तिनके पद पूजू शीशनाय, आह्वानन कर उरमें बसाय।। ऊँ ह्रीं उपभोगलब्धिधारक जिन अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। जिन अत्र तिष्ठ
तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
अष्टक (सोरठा) गंगाजल भरलाय, उज्ज्वल मुनि चित सारसो। जजू चरण जिनराय, हेत लब्धि उपभोग के।
ऊँ ह्रीं उपभोगलब्धिधारक जिनेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा।।1।।
कुंकुम घसि घनसार, ताप हरे शीतल करे। जिन पदतर दे धार, हेत लब्धि उपभोग के।।
ॐ ह्रीं उपभोगलब्धिधारक जिनेभ्यो चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।।2।।
तंदुल अमल निहार, रत्न थाल कर धारिके। पूजूं जिन पद सार, हेत लब्धि उपभोग के।।
ऊँ ह्रीं उपभोगलब्धिधारक जिनेभ्यो अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।3॥
पुष्प मनोहर लाय, गुञ्जत अलिगण गंधतें। जिन पद पूज कराय, हेत लब्धि उपभोग के।।
ॐ ह्रीं उपभोगलब्धिधारक जिनेभ्यो पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।4।
बहु पकवान बनाय, क्षुधा हरण भरि थाल में। पूजूं जिन पद ध्याय, हेत लब्धि उपभोग के।।
ऊँ ह्रीं उपभोगलब्धिधारक जिनेभ्यो नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।5।
दीपक ज्योति महान, तिमिर हरण जगमग करे। पूजू पद भगवान, हेत लब्धि उपभोग के।।
ऊँ ह्रीं उपभोगलब्धिधारक जिनेभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।6।।
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