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प्रत्येक अर्घ (अडिल्ल छन्द) मोह कर्म की प्रकृति सात मिथ्यात है। ता उपशमतें उपशमसम्यक पात है।। ताहि यथावत श्रद्ध भुंजयन्ते जिना। भोग लब्धि के हेतु जजूं मैं निश दिना।।
ऊँ ह्रीं प्रथमा भोगनामलब्धि प्राप्ताय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।।।
क्रोध लोभ छल माल अप्रत्याखान है। उपशमात दृग सहित देश व्रत ठान है।। भुंजयन्ति सा भोग भाव लब्धी यही। पूजू अर्घ चढाय देहु शिवकी मही।। ऊँ ह्रीं द्वितीया भोगनाम लब्धि प्राप्ताय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।2।
अप्रत्याख्यान क्रोधादि चतुष्कं क्षिपाय है। मुनिव्रत धारण शक्त भई सुखदाय हैं।। सदा लब्धि यह धरत भोग अविकार है। तिनके पद नित जजू अर्घ भरि थार है।।
ऊँ ह्रीं तृतीया भोगनामलब्धि प्राप्ताय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।3।
पंदरह भेद प्रमाद रहित परिणाम है। अंतर-महुरत शुद्ध रहै इक ठाम है।। ऐसे भाव विशुद्ध भोग लब्धी धरी। जिन पद पूजूं सार मोह ममता हरी।। ऊँ ह्रीं चतुर्थी भोगनाम लब्धि प्राप्ताय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥4॥
पूरव भव परिणाम शुक्ल नाहीं भये। ते अपूर्व परिणाम सु क्षायिक भाव ये।। @जयंति सो भोग लब्धि धर जिनवरा। जजू अर्घ करधार मोक्ष लक्ष्मी करा।।
ऊँ ह्रीं पंचमी भोगनाम लब्धि प्राप्ताय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।5।।
जे अष्टम गुणस्थान लब्धि भावातमा। ते अच्युवन करणे सु अनिवृति गुणसमा।। भुक्ति भोग की लब्धि धरै जिनराज जी। नमूं जन्म दुखमेट सुधारो काजजी।।
ऊँ ह्रीं षष्ठी भोगनाम लब्धि प्राप्ताय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।6।।
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