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नारी की शय्या नहिं पौढे, कपड़ा नारी तनी नहिं ओढै।
शील विरत ताके दिढ़ होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै।। ऊँ ह्रीं श्री स्त्रीशय्यासन-वर्जनोत्तम-ब्रह्मचर्य धर्मांगाय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥7॥
कबहूं न काम कथा न मन आई, विकथा काननतैं न सुनाई। ताके मदन चाह नहिं होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै ॥ ऊँ ह्रीं श्री काम-कथा-व
-वर्जनोत्तम ब्रह्मचर्य धर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥8॥
पूरण उदर अशन नहिं खावै, ऊनोदर में चित्त रमावै। शील पालना ताके होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै ॥
ऊँ ह्रीं श्री उदयपूर्णाशन-वर्जनोत्तम - ब्रह्मचर्य-धर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा॥9॥
नवधा शील धेरै जो कोई, ताके ब्रह्मचर्यव्रत होई ।
इस व्रत तै भव तरनो होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै।।
ऊँ ह्रीं श्री नवधाशील-पालनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।।
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कामदेव वश तन तप होई, जिमि तरू होय तुषा दसोई।
यह शोषण शर काम न होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै।।
ऊँ ह्रीं श्री शोषणकामबाण - वर्जनोत्तम - ब्रह्मचर्य धर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा॥11॥
कामबाण जाके मन माही, मन संताप रहै अधिकाई।
काम बाण संताप न होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै ।।
ऊँ ह्रीं श्री संतापकामबाणवर्जनोत्तम-ब्रह्मचर्य धर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।।12।
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