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स्वयंभ्वादि गणराज पैंतीस जिन कुंथु के। साठि हजार मुनिराज सब संघ के।। नीर गंधाक्षतं पुष्प चरु दीपकं । धूप फल अर्घ लेय हम यजैं महर्षिकं॥17॥ ऊँ ह्रीं श्री कुंथु जिनस्य स्वयंभू आदि पंचत्रिंशत् गणधर षष्ठि सहस्त्र सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
तीस गणधार कुंभादि अरनाथ के । सहस्त्र पचास मुनिराज सब साथ के।। नीर गंधाक्षतं पुष्प चरु दीपकं । धूप फल अर्घ लेय हम यजैं महर्षिकं॥18॥ ऊँ ह्रीं श्री अरहनाथ जिनस्य कुंभादि त्रिंशत् गणधर पंचाशत् सहस्र सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
विशाखादि गणराज आठ अरु बीस हैं। मल्लि जिन के मुनी सहस चालीस हैं।। नीर गंधाक्षतं पुष्प चरु दीपकं । धूप फल अर्घ लेय हम यजैं महर्षिकं॥19॥ ऊँ ह्रीं श्री मल्लि जिनस्य विशाखादि अष्टविंशति गणधर चत्वारिंशत् सहस्र सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट दशगणधरा मल्लि आदिक सदा । मुनिसुव्रत तीस हज्जार मुनीवर तदा।। नीर गंधाक्षतं पुष्प चरु दीपकं । धूप फल अर्घ लेय हम यजैं महर्षिकं॥20॥ ऊँ ह्रीं श्री मुनिसुव्रत जिनस्य मल्लि आदि अष्टदश गणधर त्रिं शत् सहस्त्र सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
सुप्रभादि गणधर दस सप्त नमिनाथ के। बीस हजार सब अवर मुनिवर साथ के।। नीर गंधाक्षतं पुष्प चरु दीपकं । धूप फल अर्घ लेय हम यजैं महर्षिकं॥21॥ ऊँ ह्रीं श्री नमि जिनस्य सुप्रभादि सप्तदशगणधर विंशति सहस्र सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
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