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चौसठ ऋद्धि विधान (पण्डित श्री स्वरूपचन्द्र जी कृत)
(दोहा) सारासार विचार करि तजि संसृति को भार। धाराधर निज ध्यान की, भये सिद्ध भवपार।।1।। भूत भविष्यत् काल के, वर्तमान ऋषिराज। तिन के पद कूँ नमन करि, पूज रचूँ
शिवकाज।।2॥ अथ स्तुति ढाल मद अवलिप्त की इह संसार असार दुःखमय जानि निरंतर। विषय भोग धन धान्य त्यागि सब भये दिगंबर।। पर परिणति परिहार लगे निज परिणति माही।
रागद्वेष मद मोहतनी नाही परछाहीं।।3।। जनम जरा अरू मरण त्रिदोष ज या जग माहीं।
सब जगवासी जीव भ्रमत कछु साता नाहीं।। इहि विचारि चित मांही धारी संयम अविकारी। शुक्ल ध्यान धरि धीर वरी अविचल शिवनारी।।4।।
षट्कायनि के जीवतनी करुना प्रतिपालैं। करि चोरी परिहार मृषा वच सब ही टालें।। ब्रह्मचर्यव्रत धर्यो परिग्रह द्विविधि तज्या जिन। पंच महाव्रत येह धारि मुनि भये विचक्षन।।5।। च्यारि हाथ भू निरखि चलें हित मित वच भाई। षट् चालीस जू दोष रहित शुभ असनज चाखें।।
भूमिशुद्ध प्रतिलेखि वस्तु क्षेपैरू उठावें। भू-निर्जंतु मझारि मूत्रमलक्षपण करावें।।6।।
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