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(दोहा)
नौसे पच्चिस कोटि लख, त्रेपन अट्ठावीस । सहस ऊन कर बावना, बिंब प्रकृत नम शीस || ऊँ ह्रीं नवशतपंचविंशतिकोटित्रिपंचाशल्लक्षसप्तविंशति-सहस्रनवशताष्टचत्वारिंशत् प्रमित अकृत्रिमजिनबिम्बेभ्यो अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।247
आठ कोड़ लख छप्पने, सत्तानवे हजार । चारि शतक इक असी जिन, चैत्य अकृत भ
सार।।
ऊँ ह्रीं अष्टकोटिषट्पंचाशल्लक्षसप्तनवति सहस्रचतुःशतएकाशीतिसंख्याकृत्रिमजिनालेभ्यो अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥248॥
(चौपाई)
जय मिथ्यात्व नाग को सिंहा, एक पक्ष जल धरको मेहा।
नरक कूपते रक्षक जाना, भज जिन आगम तत्व खजाना।।
ॐ ह्रीं स्याद्वाद अंकितजिनागमाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥249॥
(भुजंग प्रयात छन्द)
जिनेन्द्रोक्त धर्म दयाभव रूपा, यही द्वैविधा संयमं है
अनूपा। यही रत्नत्रय मय क्षमा आदि दशधा, यही स्वानुभव पूजिये द्रव्य अठधा।।
ऊँ ह्रीं दशलक्षणोत्तमादित्रिलक्षणसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप तथा मुनिगृहस्थाचारभेदेन द्विविध
तथा दयारूपत्वेनैकरूप जिनधर्माय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। 2501
(दोहा)
अर्हत्सिद्धाचार्य गुरू, साधु जिनागम धर्म । चैत्य चैत्य ग्रह देव नव, यज मंडल कर सर्म ।। ऊँ ह्रीं सर्वयागमण्डलदेवताभ्यः पूर्णायं निर्वपामीति स्वाहा।
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