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तन नख केश मलादि बहु अंग लगी पवनादि। हरै मृगी शूलादि बहु, जजूं साधु भववादि।। ॐ ह्रीं सर्वौषधिऋद्धिप्राप्तेभ्यो अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥234॥
विष मिश्रित आहार भी, जहं निर्विष हो जाय। चरण धरें भू अमृती, जजूं साधु दुःख जाय || ऊँ ह्रीं आस्याविषऋद्धिप्राप्तेभ्यो अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।235॥
पड़त दृष्टि जिनकी जहां, सर्वहिं विष टल जाय। आत्म रमी शुचि संयमी, पूजूं ध्यान लगाय।। ऊँ ह्रीं दृष्ट्यविषऋद्धिप्राप्तेभ्यो अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।। 236।।
मरण होय तत्काल यदि, कहें साधु मर जाव। तदपि क्रोध करते नहीं, पूजूं बल दरशाब।। ऊँ ह्रीं आशाविषऋद्धिप्राप्तेभ्यो अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।। 237॥
दृष्टिक्रूर देखें यदी, तुर्त काल वश थाय । निज पर सुख कारी यती, पूजूं शक्ति धराय।। ऊँ ह्रीं दृष्टिविषऋद्धिप्राप्तेभ्यो अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।। 238॥
नीरस भोजन कर धरे, क्षीर समान बनाय । क्षीरस्रावी ऋद्धि धरे, जजूं साधु हरषाय। ॐ ह्रीं क्षीस्रावीऋद्धिप्राप्तेभ्यो अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥ 239॥
वचन जस पीड़ा हरे, कटु भोजन मधुराय । मधुश्रावी वर ऋद्धि धरे, जजूं साधु उमगाय।। ऊँ ह्रीं मधुश्राविऋद्धिप्राप्तेभ्यो अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।240।।
रूक्ष अन्न करमें धरे, घृत रस पूरण थाय। घृतश्रावी वर ऋद्धि धर, जजूं साधु सुख पाय।। ऊँ ह्रीं घृतश्रावीऋद्धिप्राप्तेभ्यो अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।241॥
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