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करे थुती बनाय एक गद्य पद्य सारते, कहे असभ्य बात एक क्रूरता प्रसारते। न रोष तोष धारते पदार्थ को विचारते, जजू यती महान कर्ण रागद्वेष टारते।। ऊँ ह्रीं श्रोत्रेन्द्रियविकारविरतसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।185।।
धरें महान शांतता न रागद्वेष भावते, चलें नहीं सुयोग से विराट कष्ट आवते। तरें समुद्र कर्म को जहाज ध्यान खेवते, यजूं यती स्वरूप मांहि बैठ तत्व बेवते।। ॐ ह्रीं सामायिकावश्यकगुणधारकसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।186॥
करें त्रिकाल बन्दना सु पूज्य सिद्ध साधु को, विचार बार-बार आत्मशुद्ध गुण स्वभाव को। करें शु नाश कर्म जो कि मोक्षमार्ग रोकते, यजूं यती महान माथ नाय नाय ढोकते।। ऊँ ह्रीं वन्दनावश्यकगुणधारकसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।187॥
करें सुगान गुण अपार तीर्थनाथ देवके, मन पिशाच को विडार स्वात्मसार सेवके। बनाय शुद्ध भाव माल आत्मकण्ठ डारते, जजू यती महान कर्म आठ चूर डारते।। ॐ ह्रीं स्तवनावश्यकगुणधारकसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।188॥
करें विचार दोष होय नित्य कार्य साधते, क्षमा कराय सर्व जन्तु जाति कष्ट पावते। आलोचना सुकृत्य से स्वदोष को मिटावते, जजू यती महान ज्ञान अम्बु में नहाबते।। ॐ ह्रीं प्रतिक्रमणावश्यकगुणधारकसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।189॥
रखें सुबांध मन कपी महान है जुनट खटा, बनाय सांकलान शास्त्र पाठ में जुटावता। धरै स्वभाव शुद्ध नित्य आत्म को रमावते, जजू यती उदय महान् ज्ञानसूर्य पावते।। ऊँ ह्रीं स्वाध्यायावश्यकगुणधारकसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।1900
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