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द्वितीय सूत्रकृतांग विचारते, स्व पार तत्व सु निश्चय लावते।
पद छत्तीस हजार विशाल है, जजू पाठक शिष्य दयालु हैं।। ऊँ ह्रीं षट् त्रिं शत्सहस्त्रपदसंयुक्तसूत्रकृतांगज्ञाता उपाध्याय परमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।147॥
तृतीय अंग स्थान छः द्रव्य को, पद हजार बियालिस धारतो।
एक द्वै त्रय भेद बखानता, जजू पाठक तत्व पिछानता।। ॐ ह्रीं द्विचत्वारिंशत्पदसंयुक्तस्थानांगज्ञाता उपाध्याय परमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।148॥
द्रव्य क्षेत्र समय अर भाव से, साम्य झलकावे विस्तार से।
लख सहस्त्र चौंसठ पद धारता, जजू पाठक तत्व विचारता।। ऊँ ह्रीं एकलक्षषष्ठिपदन्याससहस्रसमवायांगज्ञाता उपाध्याय परमेष्ठिने अध्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।149॥
प्रश्न साठ हजार बखानता, सहस अठविंशति पदधारता।
द्विलख और विशद परकाशता, जजू पाठक ध्यान सम्हारता।। ऊँ ह्रीं द्विलक्षअष्टविंशतिसहस्रपदरंजितव्याख्याप्रज्ञप्त्यंगज्ञाता उपाध्याय परमेष्ठिने अध्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।1500
धर्मचर्चा प्रश्नोत्तर करे, पांच लाख सहस छप्पन धरे।
पद सु मध्यम ज्ञान बढावता, जजू पाठक आतम ध्यावता।। ॐ ह्रीं पंचलक्षषट्पंचाशत्सहस्रपदसंगतज्ञातृधर्मकथांगधारकोपाध्याय परमेष्ठिने अध्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।1510
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