________________
जीवघात निज परकर सेती, भोजन-बेला होई। तो मुनि देख तजे भोजन को, दयाभाव धर सोई।। 'जन्तूवधदूषण' तजके मुनि, समिति एषणा पाले।
या जुत सम्यक्चारित पूजों, सो मेरे अघ टाले। ओं ह्रीं जन्तुवधान्तरायरहितैषणासमितियुत सम्यक्चारित्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
भोजन करते हाथों में से, काक ग्रास ले जावे। जो मुनिनाथ तजें भोजन को, ता दिन फेरि न खावें।। काकपिंड यह दोष तजे मुनि, समिति एषणा पाले।
या जुत सम्यक्चारित पूजों, सो मेरे अघ टाले।। ओं ह्रीं काकपिंडान्तरायरहितैषणासमितियुत सम्यक्चारित्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
भोजन करते ग्रास पड़े भू, दातृ पात्र कर सेती। तो मुनि भोजन नाहिं करे फिर, है मर्यादा येती।। पाणिपात दूषण तजके मुनि, समिति एषणा पाले।
या जुत सम्यक्चारित पूजों, सो मेरे अघ टाले।। ओं ह्रीं पाणिपातान्तरायरहितैषणासमितियुत सम्यक्चारित्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
भोजन करते पाणिपात्र में, जीव मरे यदि आई। तो ऋषिराज तजें भोजन को, करुणाभाव उपाई।। पाणिपात्र जियघात दोष तज, समिति एषणा पाले।
या जुत सम्यक्चारित पूजों, सो मेरे अघ टाले।। ओं ह्रीं पाणिपात्रजन्तुधातान्तरायरहितैषणासमितिसहित सम्यक्चारित्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
329