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इन्द्रादिक भवत करें तुम्हरी, निज थानकदो विनती हमरी।। किन्नर तुम्हरे गुणगावत हैं, स्वरताल समाज बजावत हैं। द्रुम-द्रुम बजे सु मृदंग जहां, मुरली धुनि बाज रही सु तहां।।
वर बीन बजाय सु गान करें, स्वरसप्त महामुखसों उचरें। __संगीतकला तहां ठानत हैं, तननं तन तानुस तानत हैं।।
छम छम छम नूपुर बाजत हैं, ततथेई-ततई धुनि साजत हैं। इति भांति सुरस्तुति गावत हैं, जय जय-जय शब्द सुनावत हैं।।
जय जय जयवंत सदासुरहौं, शिवथान मंझारन आनचहौं। जय भक्तन को सुखदायक हो, शिवमारग जात सहायक हो।। ___ मैं दीन दुखी भवफंद परो, करुणाकर आप उद्धार करो। जवलों यह फन्द सो नाहिनशे, तबलों, तुम भक्ति हृदय सु बसे।।
यह मांगत हों तुमसे वरजी, करुणाकर आप सुनो अरजी। तुमका तज आनन शरण गहों, कहें ‘चन्द्र' सदातुव शरण रहों।।
(धत्ता) जय-जय सुरदेवा, सुरनर सेवा, करत स्वयमेवा भक्ति सही। मन-वच-तन ध्याऊँ, तुमगुण गाऊँ, ता फल पाऊँ मोक्ष मही।।
ऊँ ह्रीं सद्धपरमेष्ठिने महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा देव नमन अरहंत पद, नित सेवत गुरु निग्रंथ। दया धरम सु हृदय बसत, 'चन्द्र' चलत निजपंथ।।
बुधजन से विनती करों, बार बार शिरनाय। अनरथ घट बढ़ शब्द हों, तो तुम धरो बनाय।।
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