________________
नेवज कर ताजा, लाडू खाजा, अति छवि छाजा मन भाया। षटरस कर मीना, स्वाद नवीना, थाल भरीना हरषाया।। ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।5।।
दीपक ले नीका, ज्योति जगीका, रतन नहींका पर जालों। धर मध्य सुथारा, विपुल उजारा, मोह निवारा तम टालो।।
ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।6।।
वर गंध कुचरकें, दशविधि करके, उत्तम धरके खेवत हों। तसु धूम उड़ाना, मन हरषाना, करम नशाना सेवत हों।।
ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।7॥
उत्तम फल प्यारा, आम अनारा, श्रीफल भारा ले सु धरो। तुशरणें आया, मन हरषाया, सुकृत कमाया पार करो।। ऊँ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने फलं निर्वपामीति स्वाहा।।8।
जल गंध सुधारें, अक्षत न्यारे, पुष्प सु प्यारे नेवजले। द्युति दीप उचारी, धूप सुधारी, फल धर भारी सरस भले।।
ऊँ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥9॥
(अडिल्ल) अष्ट करम जे दुष्ट, तिन्हें तुम नाशियो। अष्ट महा गुण सुष्ट, तिन्हें सु प्रकाशियो।। अष्ट द्रव्य से पूजों, मन वच काय जी। आठों अंग नवाय, नमों तुम पांय ज।।
ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा॥10॥
199