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कर्मदहन विधान (कवि श्री चंद्रजी कृत )
दोहा
तीर्थंकर जिनको नमें, सुर नर मुनिगण सन्त। जयवंते वरतो सदा, ऐसे सिद्ध महन्त।। 1 ।।
छप्पय
ऋषभ अजित संभव जिनेन्द्र अभिनन्दन जानों।
सुमति पद्म जिनदेव, सुपारसचन्द्र बखानों।। पुष्पदन्त शीतल श्रेयांस, जिन वासुपूज्य वर विमल अनन्त धर्म शांति, कुंथु जिन अरह कर्महर।। मल्लि मुनिसुव्रत सु नमि नेमि, पार्रव महावीर जी। ये चौबीसों वन्दन करों, हरो जगत की पीर जी।।
सोरठा
गुरु के लागो पांय, आचारज उवझाय मुनि । शारद माय मनाय, दे सुबुद्धि नाशे कुमति।।
सवैया ज्ञानवरणी सु हानि, ज्ञान जिन अनन्त लयो । दरशनावरणी सु घाति अनन्त दरश पायो है।। मोहनीय कर्म नाशि, सुख अनन्त को प्रकाश । अन्तराय नाशके, अनन्त वीरज पायो है।। आयु करम नाशा, अवगाहन गुण प्रगट भयो । वेदनीय नाश, अव्यावाध प्रगटायो है ।। नाम हनि अमूर्ति हो, गोत्र नाशा अगुरु लघु। आत्मविलासी, भये त्रिजग दर्शायो है।।
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