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जल गन्धाक्षत पुष्प सु नेवज लीजिये। दीप धूप फल लेकर अघ्य सु कीजिये। पूजों शिखरसमेद सु, मन वच काय जी। नरकादिक दुख टरें, अचलपद पाय जी।। ओं ह्रीं विंशतितीर्थंकराद्यसंख्यातमुनि सिद्धप्रदप्राप्तेभ्यः श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्रेभ्यः अनघ्यपदप्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
पद्धरी छन्द
श्री विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्र, अरु, असंख्यात जँहतें मुनेन्द्र । तिनकों करजोरिकरों प्रणाम, तिनको पूजों तिस सकल काम।
पूजों शिखरसमेद सु, मन वच काय जी । नरकादिक दुख टरें, अचलपद पाय जी।। ओं ह्रीं विंशतितीर्थंकराद्यसंख्यातमुनि सिद्धप्रदप्राप्तेभ्यः श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्रेभ्यः महाघ्यम्
निर्वपामीति स्वाहा।
अडिल्ल छन्द
जे नर परम सुभावन तें पूजा करें। हरि हलि चक्री होय राज छह खँडकरें। फेरि होय धरणेन्द्र इन्द्रपदवी धरें। नानाविध सुखभोगि बहुरि शिवतिय वरें।।
जोगारासा छन्द
श्रीसम्मेदशिखर गिरि उन्नत, शोभा अधिक प्रमानो।
विंशति तिहिं पर कूट मनोहर, अद्भुत रचना जानो।। श्रीतीर्थंकर बीस जहांतें, शिवपुर पहुँचे जाई ।
तिनके पद-पंकज जुग पूजों, अघ्य प्रत्येक चढ़ाई।। ओं ह्रीं विंशतितीर्थंकराद्यसंख्यातमुनि सिद्धप्रदप्राप्तेभ्यः श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्रेभ्यः अध्यम्
निर्वपामीति स्वाहा।
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